एक कलाकार कला को शुरू से कभी नहीं चुनता है, कला उसे चुनती है। यह बात तब तक सच रहती है, जब तक वो अपनी कला को पहचानना शुरू नहीं कर देता है। कला जब कलाकार पर खुलती है, उसके सामने कई यक्ष प्रश्न खड़े हो जाते हैं। कला का स्रोत, उदय, प्रभाव और परिधि कठघरे में खड़े जान पड़ते हैं।

लेखक हो जाने पर, मैं अपनी कला से परिचित तो हुआ पर सवालों के जवाब ढूँढने को ज़्यादा तरजीह दी। कुछ जवाब मिले और कुछ अभी भी इंतज़ार में हैं।

कला के स्रोत को अपने अंदर ढूँढने की यात्रा में मैंने पाया कि कला अभिव्यक्ति का सबसे नैसर्गिक रूप है। कला प्राकृतिक है। कला की आलोचना कृत्रिम है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कला की शुरुआत को, समाज के भूले-बिसरे लोगों के अंदर देखा और उनकी अभिव्यक्ति के अंदर की आग को नमन किया। अगर कला सच में इंसान के विचारों की अभिव्यक्ति है तो इस अभिव्यक्ति से भी अन्य विचार निकलेंगे। यह वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही बैठता है। ऐसे में, कला के किसी भी प्रारूप का, चुनिंदा आलोचकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और स्वघोषित समकालीन कलाकारों की बपौती बने रहना, अचम्भित करता है।

कला को समझने के लिए, इंसान होने के अलावा भी, कोई शर्त होना बड़ी दुविधा का विषय है। मेरी समझ से, कला इंसान के दिल में सीधे दस्तक देती है। अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो कला की शुद्धता और नैसर्गिकता में कमी जान पड़ती है।

कला एक सम्वाद है। यह सम्वाद ख़ुद से हो, अपने विषयों से हो, अपने समाज से हो या किसी ख़्याली किरदार से। सम्वाद के बिना कला का सृजन निरर्थक है। जाने कितनी परतें कलाकार अपने अंदर लगा लेते हैं कि सम्वाद शून्य में चला जाता है। परतें मंचों की होती हैं या सस्ती लोकप्रियता की। सम्वाद के लिये इनकी ज़रूरत कभी नहीं पड़ी; हाँ, विवादों के लिये मंच ज़रूर खड़े किये गए। शायद, जैसे-जैसे कलाकार बड़ा होता है, कला अपनी प्रकृति खो देती है। बाहर आता है तो समसामायिक उच्चारण।

कला का प्रभाव उच्चारण की परिधि तक सिमट जाता है।

कला का प्रभाव बाहर की तरफ होगा या अंदर की ओर, यह सिर्फ़ हमारी चेतना पर निर्भर करता है। लाखों सालों की ऊर्जा से भरी कला हमें संदेश देती है। समय की सीमा के उस पार से आवाज़ें आती हैं। हम इतने शोर में दब जाते हैं कि सिर्फ़ एक सिहरन महसूसते हैं। कला को बिना बाहर निकाले, अपने और गहरे पैठने दिया जाना चाहिए। अकेले में ख़ुद से सम्वाद करना चाहिए। कला को सभी परतों से आज़ाद कर देने पर कला जीवित होती है। उसका विस्तार होता है। कला एक साधन नहीं, साधना बन जाती है। उससे जन्म लेता है चिंतन।

कला का चिंतन ही कलाकार का कर्तव्य है। नदी, पहाड़, मैदानों से कहीं आगे कला की वैतरणी बहती है। इस वैतरणी में डुबकी लगाना, कला से एक हो जाना है। ऐसे में कला की परिधि सब कुछ अपने अंदर समेट लेती है। हम कला से एक हो जाते हैं।

कला की परिधि सम्वाद के प्रभाव से निकलती है। सम्वाद चिंतन से निकलता है। कला का चिंतन ख़ुद से किया सम्वाद है।

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