मैंने ख़ुद को जलाया
राख होने तक
पर कविता नहीं जली
उल्टा उग आये कविता में नये फूल, नया राग
और मैं उस राग में गाने लगा
मेरे गीतों में मज़दूरों का पसीना था
युवा पीढ़ी की उम्मीद थी
मेरा देश था, उसके लोग थे
पर मैं नहीं था
क्योंकि मैं बहुत पहले कविता हो चुका था
हाँ मैं कविता था
भाषा की धुन पर नाचती कविता
मैंने देश से कहा
ताकत भर तेरा कर्ज़ चुकाऊंगा
हाँ जब धरती पर सोऊंगा
अपनी व्यथा नहीं रोऊंगा
मेरे शब्द बिखरे होंगे धरा पर
मैं झूठ नहीं छाऊंगा
और सच जब घनीभूत होगा
तो करेगा नाश झूठ का
मिटेगा अन्याय और न्याय कविता के रथ पर सवार आयेगा…
सच का साक्षी कविता का रथ…

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