प्रेम जब तक देह
तब तक स्थूल
जब सूक्ष्म तब आत्मा
और इस आत्मा के साथ अनुभूति की सांद्रता
यही वो सिरा है जहाँ से उठकर
मैं तुम तक पहुँचता हूँ
और यह क़वायद कोई आज की नहीं
अनुभूति के हर कण से
यही अनुगूँज उठती है और
सब्र चुकने लगता है
तब मैं कहना चाहता हूँ
कि तुम्हारे होने की सभी शर्तें पूरी कर दी हैं मैंने
अब मैं तुम्हारी आवाज़ में अपना गीत सुनना चाहता हूँ
थोड़ा मूडी होना चाहता हूँ
तुम्हारी हँसी की तरह…

यह भी पढ़ें:

पल्लवी मुखर्जी की कविता ‘लौट आया प्रेम’
उपमा ‘ऋचा’ की कविता ‘प्रेम’
सांत्वना श्रीकांत की कविता ‘और मैंने गढ़ा प्रेम’

Previous articleबूँद टपकी एक नभ से
Next articleचंद्रकांता : दूसरा भाग – पाँचवाँ बयान

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here