ख़ंजर चमका, रात का सीना चाक हुआ
जंगल-जंगल सन्नाटा सफ़्फ़ाक हुआ

ज़ख़्म लगाकर उसका भी कुछ हाथ खुला
मैं भी धोखा खाकर कुछ चालाक हुआ

मेरी ही परछाईं दर ओ दीवार प है
सुब्ह हुई, नैरंग तमाशा ख़ाक हुआ

कैसा दिल का चराग़, कहाँ का दिल का चराग़
तेज़ हवाओं में शोला ख़ाशाक हुआ

फूल की पत्ती-पत्ती ख़ाक पे बिखरी है
रंग उड़ा, उड़ते-उड़ते अफ़्लाक हुआ

हर दम दिल की शाख़ लरज़ती रहती थी
ज़र्द हवा लहरायी, क़िस्सा पाक हुआ

अब उसकी तलवार मेरी गर्दन होगी
कब का ख़ाली ‘ज़ेब’ मिरा फ़ितराक हुआ!

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