“अजमेर शरीफ़ के नाम पर दे दे बाबा… अल्लाह तुझको बरकत देगा…।” दुमंज़िले फ़्लैट के नीचे से यह आवाज़ बार-बार मेरे कानों में गूँज रही थी। इस आवाज़ में भिखारियों सरीखी मुफ़लिसी नहीं थी। एक अधिकार था… एक मौज थी।
शहर में इन दिनों यह चर्चा गर्म थी कि अजमेर शरीफ़ के नाम पर चंदा माँगने वालों का पूरा का पूरा एक दस्ता ही इधर आया हुआ है। ये लोग तरह-तरह के जादू दिखाते, लोगों की घरेलू, शारीरिक और मानसिक परेशानियों का ज़िक्र करते और बड़ी आसानी से ठग कर ले जाते। यह भी सुनने में आया कि घर में अकेली औरत पाकर उन्हें लूटपाट और बलात्कार से भी कोई संकोच नहीं था। हालाँकि ये सब उड़ती-उड़ती सी बातें थीं जो इस छोटे शहर में अक्सर सुनायी देती थीं। इन बातों की ख़ासियत यह थी कि लूटपाट और हत्या के साथ-साथ बलात्कारवाला खंड उड़ते-उड़ते काफ़ी रसीला हो जाया करता था। यद्यपि अभी तक इन बातों की प्रामाणिकता संदिग्ध थी, फिर भी बातें थीं कि निरंतर उड़ती ही रहतीं।
उस दिन मैं घर पर अकेला था। लगातार टीवी देखते थोड़ी ऊब भी होने लगी थी, सो चाहे-अनचाहे खिड़की से झाँककर देख ही लिया। और फिर जो दिखायी दिया, उस पर हँसी भी आयी। एक दुबला-पतला मरियल-सा नौजवान अपनी घनी काली मूँछों पर हाथ फेरते हुए दहाड़ रहा था— “अजमेर शरीफ़ के नाम पर दे दे बाबा।”
मैं सोचने लगा कि ये क्या किसी को ठगेगा या लूटेगा। देखने में तो यह ख़ुद ही लुटा-पिटा लग रहा था। फटेहाल, काला-सा एक चोग़ा, सिर पर सफ़ेद नमाज़ी टोपी, गले में अनगिन मोतियों की माला और हाथ में एक झाड़ूनुमा-सी कोई चीज़… कुल मिलाकर यही उसका रूप था जो पहली नज़र में मैंने देखा।
एक तो इस वक़्त मैं अपने अकेलेपन से ऊबा था, दूसरा रहस्य-रोमांच-भरे उन जादुई क़िस्सों का आकर्षण भी मुझे खींच रहा था जो अक्सर शहर की गलियों में सुनने को मिल जाते थे। सो मौक़ा ताड़कर मैंने पूरी खिड़की खोल दी और झाँककर बाहर देखने लगा। आवाज़ सुनते ही उस नौजवान ने सिर ऊपर उठाया और मुझे देखकर बड़ी वीभत्स हँसी हँसने लगा। मुझे थोड़ा अटपटा लगा। मगर इतने में उसने तीन-चार बार अपनी झाड़ू ऊपर घुमायी और आँखें बंद करके मेरी ओर कर दी। मैं भ्रम में पड़ गया कि ये क्या हो रहा है…? ख़ैर, जब तक मैं कुछ सोचता, वह दनादन ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। न चाहकर भी मुझे दरवाज़ा खोलना पड़ा। जिस अधिकार भाव से वह दरवाज़े पर आकर बैठा, वह भी मेरे लिए कम आश्चर्यजनक नहीं था। मैंने उसे ध्यान से देखा… उसकी लाल-लाल आँखें बड़ी भयानक मालूम दे रही थीं। पान सने काले दाँत जब खुले, तब असहनीय बदबू का एक झोंका कमरे के भीतर आ गया। मैं उसे देख ही रहा था कि उसने मुझे आदेश दे दिया— “बैठ जा।”
मैं आज्ञाकारी बालक की तरह चुपचाप बैठ गया। मेरी आँखें उसकी आँखों में थीं और उसकी आँखें मेरी आँखों में। हम एक-दूसरे को न हार माननेवाले अंदाज़ में देख रहे थे। इस बीच उसने मुझसे मेरा नाम पूछा। मैं झूठ बोल गया। मैंने कहा, “हुसैन!”
वो फिर हँसा और बोला, “नाम तो अच्छा है पर काम अच्छा नहीं है।”
मुझे प्रभावित करने के लिए उसने तमाम तरीक़े अपनाए। मेरी दानवीरता, बड़प्पन और महानता की जाने कितनी बातें वह एक साँस में बोल गया। मैं भी तब बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकने में कामयाब हो रहा था। कारण—एक के बाद एक झूठ मैं बोलता जा रहा था और वह मेरे उज्ज्वल भविष्य की तमाम बातें दीवार पर लिखी इबारत की तरह बाँच जाता। इस पूरे खेल में मैं उसे बेवक़ूफ़ बना रहा था या वो मुझे… कहना ज़रा मुश्किल है, लेकिन तब तक निश्चित रूप से हार-जीत किसी की नहीं हुई थी। लेकिन थोड़ी ही देर बाद भेद खुल गया। मुझे इस बात का तनिक भी आभास नहीं था कि दरवाज़े के सामने ही दीवार पर दुर्गाजी का एक कलैंडर टँगा है। कलैंडर देखते ही उसने लाल-पीली आँखें तरेरते हुए मुझे देखा— “मुझसे झूठ बोलता है… सूफ़ी फ़क़ीर से झूठ बोलता है… नालायक़।”
मैं एकबारगी हक्का-बक्का… ये क्या हुआ? इतने में उसने दूसरा बाउंसर फेंका। फ़र्श से थोड़ी मिट्टी उठाकर माथे से लगायी और कुछ बुदबुदाने लगा। मैं अभी पुराने झटके से ही नहीं उबरा था कि उसने मिट़्टीवाला हाथ ज़ोर से ज़मीन पर दे मारा। मुट्ठी खोली तो उसमें दुर्गाजी की एक मूर्ति थी। वह बड़े ज़ोर से हँसा और बोला, “तू हिंदू है… मुसलमान नहीं… तू झूठ बोलता है।”
अब मैं समझ चुका था कि मेरा दाँव ग़लत पड़ा है। सचमुच मैं हिंदू ही हूँ… इस बात का अहसास मुझे उसकी मुट्ठी से निकली दुर्गा जी की मूर्ति से हुआ। मगर मैं भी कहाँ हार माननेवाला था। बोला, “बाबा, शायद आपको कुछ ग़लतफ़हमी हुई है। मेरा नाम तो उमेश है, आपने शायद हुसैन समझ लिया।”
मेरे इस जवाब से शायद वह कुछ संतुष्ट हुआ। फिर एक लम्बी साँस छोड़ी और गम्भीरता से बोला, “हूँ… पहले एक गिलास पानी पिला बच्चा…।”
मैं उसे जल्दी छोड़ने के मूड में नहीं था इसलिए उठा और एक गिलास पानी ले आया। पानी पीकर वह बोला, “फ़्रिज का पानी नहीं था क्या?”
उसके इस प्रश्न में मुझे छिपा हुआ व्यंग्य भी नज़र आया। सचमुच उस समय तक हमारे यहाँ फ़्रिज नहीं था। मैंने लाज छुपाने की ग़रज़ से कहा कि, “नहीं, फ़्रिज ख़राब पड़ा है।”
इस पर वह मुस्कराया। उसकी इस मुस्कराहट ने मुझे अंदर तक चिढ़ा दिया। मन तो हुआ कि साले के मुँह पर एक तमाचा लगा दूँ और पूछूँ कि फ़क़ीरों को कब से फ़्रिज के पानी की लत पड़ गई। मगर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। अब तक मैं उसकी आँखों से भी कुछ-कुछ डरने लगा था, फिर भी हारने को क़तई तैयार नहीं था। अपनी वैज्ञानिक सोच और पढ़े-लिखे होने का दम्भ मुझे ऐसा करने भी नहीं देता। ख़ैर, पानी पिलाकर मैं चुपचाप उसके पास बैठ गया।
अब उसकी बातचीत का अंदाज़ भी बदल चुका था। पहले जहाँ वह भरसक उर्दू का प्रयोग कर रहा था और ख़ुदा और पैगम्बर की दुहाई दे रहा था, वहाँ अब ‘उमेश’ नाम के प्रभाव ने उसकी ज़ुबान पर हिंदू देवी-देवताओं को क़ाबिज़ कर दिया था। मैं एकाएक उसके व्यवहार परिवर्तन से चौंका तो ज़रूर मगर फिर मुझे इस खेल में मज़ा भी आने लगा।
“फ़क़ीर अजमेर शरीफ़ से आया है। बाबा अजमेर शरीफ़ का प्रसाद अगर मिल जाए तो बड़ों-बड़ों की क़िस्मत का ताला खुल जाता है। बोल बाबा का प्रसाद लेगा?”
मैं चुप रहा। यह ख़बीस अब जाने क्या देनेवाला है। फिर सोचा देखने में क्या हर्ज है। इतने में उसने अपना सवाल फिर दोहराया। मैंने कहा, “हूँ…” तो बोला, “हूँ नहीं, बोल बाबा का प्रसाद लूँगा।”
मैंने भी उसकी इबारत दुहरा दी। इधर मैं उसकी इबारत दुहरा ही रहा था कि वह हँसा, “अक्कल अच्छी है मगर कभी-कभी बुद्धू बन जाता है। ठीक है, ले बाबा का प्रसाद ले… चमत्कार होगा।”
चमत्कार हम हिंदुस्तानियों की कमज़ोरी है। अच्छे-ख़ासे लोग भी इस चमत्कार के चक्कर में बड़े-बड़े पापड़ बेलते देखे गए हैं। मैं तो एक अदना-सा इंसान था। सो वह जैसा कहता गया, मैं करता गया। भीतर से यही एक संतोष था कि अभी तक बेवक़ूफ़ नहीं बना हूँ। वह लगातार चमत्कार पर चमत्कार कर रहा था और मैं उसे देख रहा था। अब भी उसकी आँखें मेरी आँखों को छेद रही थीं। उन आँखों के लाल-लाल डोरे शराब की मस्ती में मस्त थे। घात-प्रतिघात दोनों तरफ़ से हो रहे थे और हारने को कोई तैयार नहीं था।
उसने इस बीच मेरी कुछ व्यक्तिगत परेशानियों का भी ज़िक्र किया, हालाँकि उसकी बातें अस्पष्ट थीं फिर भी मुझे चौंकाने के लिए उसमें काफ़ी कुछ था। लग रहा था कि जैसे उसने मेरी कमज़ोर नस पकड़ ली है। वह धीरे-धीरे उस नस को दबाता और बड़ी आसानी से मैं उसकी गिरफ़्त में आ जाता।
उसने हवा में एक हाथ घुमाया और एक मोती मेरी हथेली पर रखकर मुट्ठी बंद कर दी। बोला, “जा तेरी जेब में सौ का एक नोट है, इसे उसमें हल्दी के साथ लपेटकर जल्दी से लेकर आ… फिर देख बाबा का कमाल…।”
मैंने मोती मुट्ठी में बंद कर लिया और कमरे के भीतर आ गया। पर्स में सौ का एक नोट निकला और उसे हल्दी के साथ लपेटकर बाहर आ गया। अब तक मेरे मन में कई योजनाएँ पक चुकी थीं। मैंने सोचा कि अगर वह नोट छीनना भी चाहेगा तो यह उसके बस का नहीं होगा और अपने आप तो सौ का नोट मैं इसे देने से रहा। ख़ैर… इस बीच आत्मरक्षा के भी कई उपाय मैंने कर लिए थे। मसलन आलमारी से चाकू निकालकर जेब में डाल लिया था और एक डंडा निकालकर दरवाज़े के पीछे छिपा दिया था।
हालाँकि इस बीच किसी चमत्कार की क्षीण-सी आशा भी मेरे मन में थी—इसे कैसे छिपाऊँ? संस्कारवश साधु-संतों व फ़क़ीरों के प्रति मन में इतना अविश्वास भी नहीं था। सो हर तरह से अपना बचाव करते हुए मैं नोट लेकर उसके सामने आया। उसने नोट लिया और ज़ोर से हँसा। यह हँसना कम था, कुम्भकर्णी ठहाका ज़्यादा था। ठहाका लगाते ही उसने अपना हाथ ज़ोर से ज़मीन पर पटका। हाथ में लिया नोट सचमुच ग़ायब हो चुका था। अब उसकी जगह एक ताबीज़ शेष रह गया था। मेरी तो जैसे साँस ही रुक गई। बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया।
इस बीच वह फ़क़ीर आँखें बंद कर दुआएँ पढ़ रहा था और मेरे मन में अपने रुपयों को लेकर घमासान मचा हुआ था। क्षण-भर में दो-तीन योजनाएँ मन में कौंध गईं और मैं सतर्क हो गया। इतने में उसने आँखें खोलीं और खीस निपोरता हुआ बोला, “जा बाबा ने तेरा काम पक्का कर दिया। महीने की पंद्रह तारीख़ तक तेरे पाँचों काम पूरे हो जाएँगे।”
मैं कुछ समझा, कुछ नहीं क्योंकि अब भी मेरे दिमाग़ में अपने सौ रुपये के नोट को लेकर उथल-पुथल मची हुई थी। मैंने तुरंत झपटकर उसका झोला उठा लिया और तैश में आकर बोला, “नाटक मत करो अब बहुत हो चुका। मेरे सौ रुपये वापस करते हो कि नहीं…”
इतना सुनना था कि उसकी आँखों के लाल-लाल डोरे और लाल हो गए। “अरे बदज़ात! बाबा ने तेरा काम पक्का कर दिया है। पैसा तो हाथ का मैल होता है। मैं तो उसे बाल बराबर भी नहीं समझता।”
वह लगातार बक रहा था और अश्लील गालियाँ दे रहा था। इधर मेरी ज़ुबान पर सिर्फ़ एक बात थी कि मेरे पैसे वापस करते हो कि नहीं।
अभी तक जो चीज़ मेरे लिए महज़ एक खेल थी, वह अचानक मेरी अस्मिता का प्रश्न बन चुकी थी। मैं तैयार था कि अगर उसने कुछ गड़बड़ की तो मैं दरवाज़े के पीछे छिपा अपना डंडा उठा लूँगा। अब सोचता हूँ तो लगता है कि इन सारी बौद्धिक क्रियाओं के पीछे मेरी राजनीति ही काम कर रही थी। आख़िर जीतना मुझे ही था और इसके लिए मैं किसी भी सीमा तक जा सकता था। शायद वह मेरे इस खेल को समझ गया था इसलिए उसने एक अंतिम दाँव खेला। ताबीज़ मेरे हाथ से लेकर एक बार फिर हवा में हाथ घुमाया और मेरा नोट मेरे हाथ पर रख दिया। मेरी जान में जान आयी, मगर खेल अभी ख़त्म नहीं हुआ था। बाबा अजमेर शरीफ़ की दुहाई अब भी जारी थी। बीच-बीच में लक्ष्मी, दुर्गा या जय श्रीराम का उद्घोष भी हो जाता।
अब वह सौ रुपये से उतरकर पचास पर आ गया और अजमेर शरीफ़ पर चादर चढ़ाने की बात करने लगा। जय श्रीराम के उद्घोष के बीच बाबा अजमेर शरीफ़ का साम्प्रदायीकरण करने पर भी वह तुल गया था। मगर मैं उसकी किसी भी दलील से नहीं पसीजा। आख़िर उसने विशुद्ध व्यावसायिक तरीक़े से सौदेबाज़ी भी शुरू कर दी। जैसे-जैसे रेट गिरते, उसके चेहरे के भाव भी बदलते जाते। अब उसमें पहले की तरह आक्रामकता नहीं थी, एक दयनीय याचना थी।
इस याचना में छिपे अर्थशास्त्र को भी अब मैं समझने लगा था। दो भिन्न अर्थशास्त्रों के अंतःसंघर्ष अपनी अंतिम परिणति पर पहुँचते, इससे पहले ही एक ने हार मान ली और बड़प्पन दिखाते हुए उठ खड़ा हुआ।
अब बाज़ी मेरे हाथ में थी। यही एक मौक़ा था जब मैं अपनी दयालुता और दानवीरता का सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकता था। मैंने झट अपनी जेब में हाथ डाला और पाँच का नोट उसके हाथ पर रखते हुए बोला, “बाबा अजमेर शरीफ़ के नाम…।”
उसने एक फीकी मुस्कान के साथ नोट मेरे हाथ से ले लिया और जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ उतरने लगा। मैं फिर अपने कमरे में आकर टीवी से चिपक गया। फ़्लैट के नीचे से अब भी वही अधिकार-भरी मौज़ूँ आवाज़ आ रही थी, “अजमेर शरीफ़ के नाम पर दे दे बाबा… अल्लाह तुझको बरकत देगा…।”