कविवचन सुधा खण्ड-२, अंक २२, श्रावण कृष्ण ३० सम्वत १९२२ में संपादक को लिखा गया पत्र जिसमें भेजने वाले का नाम एक यात्री लिखा है। भारतेन्दु का एक उपनाम यह भी था।

– सं.

श्रीमान् क. व. सुधा संपादक महोदयेषु!

मेरे लखनऊ गमन का वृत्तांत निश्चय आपके पाठकगणों को मनोरंजक होगा।

कानपुर से लखनऊ आने के हेतु एक कंपनी अलग है। इसका नाम अ. रू. रे. कांपनी है। इसका काम भी नया है और इसके गार्ड इत्यादिक सब काम चलाने वाले हिंदुस्तानी हैं। स्टेशन कान्हपुर का तो दरिद्र सा है पर लखनऊ का अच्छा है। लखनऊ के पास पहुंचते ही मसजिदों के ऊंचे कंगूर दूर ही से दिखते हैं, पर नगर में प्रवेश करते ही एक बड़ी बिपत आ पड़ती है। वह यह है कि चुंगी के राक्षसों का मुख देखना होता है। हम लोग ज्यों ही नगर में प्रवेश करने लगे जमदूतों ने रोका। सब गठरियों को खोल खोल के देखा, जब कोई वस्तु न निकसी तब अंगूठियों पर (जो हम लोगों के पास थीं) आ झुके, बोले इसका महसूल दे जाओ। हम लोग उतर के चौकी पर गए। वहाँ एक ठिगना सा काला रूखा मनुष्य बैठा था। नटखटपन उसके मुखर से बरसता था। मैंने पूछा क्यों साहब बिना बिकरी की वस्तुओं पर भी महसूल लगता है। बोले हाँ, कागज देख लीजिए, छपा हुआ है। मैंने कागज देखा उसमें भी यही छपा था। मुझे पढ़ के यहाँ की गवर्नमेंट के इस अन्याय पर बड़ा दु:ख हुआ। मैंने उनसे पूछा कि कहिये कितना महसूल दूँ। आप नाक गाल फुला के बोले कि मैं कुछ जवहिरी नहीं हूँ कि इन अँगूठियों का दाम जानूँ, मोहर करके गोदाम को भेजूंगा, वहाँ सुपरिटेंडेंट साहब सांझ को आकर दाम लगावेंगे। मैंने कहा कि साँझ तक भूखों कौन मरेगा। बोले इससे मुझे क्या? कहाँ तक लिखूं इस दुष्ट ने हम लोगों को बहुत छकाया। अंत में मुझे क्रोध आया तब मैंने उसको नृसिंह रूप दिखाया और कहा कि मैं तेरी रिपोर्ट करूंगा। पहिले तो आप भी बिगड़े, पीछे ढीले हुए, बोले अच्छा जो आपको धर्म में आवे, दे दीजिए। तीन रुपये देकर प्राण बचे, तब उनके सिपाहियों ने इनाम माँगा। मैंने पूछा क्या इसी घंटों दुख देने का इनाम चाहिये। किसी प्रकार इस बिपत से छूटकर नगर में आए।

नगर पुराना तो नष्ट हो गया है, जो बचा है वह नई सड़क से इतना नीचा है कि पाताल लोक का नमूना सा जान पड़ता है। मसजिद बहुत सी हैं, गलिया संकरी और कीचड़ से भरी हुई बुरी, गन्दी, दुर्गन्धमय। सड़क के घर सुथरे बने हुए हैं। नई सड़क बहुत चौड़ी और अच्छी है। जहाँ पहिले जौहरी बाजार और मीनाबाजार था वहाँ गदहे चरते हैं और सब इमामबाड़ों में किसी में डाकघर, कहीं अस्पताल, कहीं छापाखाना हो रहा है। रूमी दरवाज़ा नवाब आसिफुद्दौला की मस्जिद और मच्छीभवन का सर्कारी किल बना है। बेदमुश्क के हौजों में गोरे मूतते हैं। केवल दो स्थान देखने योग्य बचे हैं। पहिला हुसैनाबाद और दूसरा कैसर बाग। हुसैनाबाद के फाटक के बाहर एक षट्कोण तालाब सुन्दर और एक बारहदरी भी उसके ऊपर है और हुसैनाबाद के फाटक के भीतर एक नहर बनी है और बाईं ओर ताजगंज का सा एक कमरा बना हुआ है। वह मकान जिसमें बादशाह गड़े है देखने योग्य है। बड़े-बड़े कई सुन्दर झाड़ रक्खे हुए हैं और इस हुसैनाबाद के दीवारों में लोहे के गिलास लगाने के इतने अंकुड़े लगे हैं कि दीवार काली हो रही है। कैसरबाग भी देखने योग्य है। सुनहरे शिखर धूप में चमकते हैं। बीच में एक बारादरी रमणीय बनी है और चारों ओर अनेक सुन्दर-सुन्दर बंगले बने हैं। जिसका नाम लंका है उसमें कचहरी होती है। और औध के तअल्लुके दारों को मिले हैं। जहाँ मोती लुटते थे वहां धूल उड़ती है। यहाँ एक पीपल का पेड़ श्वेत रंग का देखने योग्य है।

यहाँ के हिंदू रईस धनिक लोग असभ्य है और पुरानी बातें उनके सिर में भरी है। मुझसे जो मिला उसने मेरी आमदनी, गाँव, रुपया पहिले पूछा और नाम पीछे। वरन बहुत से आदमी संग में न लाने की निंदा सबने किया पर जो लोग शिक्षित हैं वे सभ्य हैं। परंतु रंडियाँ प्राय: सबके पास नौकर हैं। और मुसलमान सब वाह्य सभ्य हैं, बोलने में बड़े चतुर हैं। यदि कोई भी मांगता है या फल बेचता है तो वह भी एक अच्छी चाल से। थोड़ी अवस्था के पुरुषों में भी स्त्रीपन झलकता है। बातें यहाँ की बड़ी लंबी चौड़ी, बाहर से स्वच्छ भीतर से मलीन। स्त्रियाँ सुंदर तो ऐसी नहीं पर आँख लड़ाने में बड़ी चतुर। यहाँ भंगिनें रंडियों के भी कान काटती हैं। हुक्के की, भंग की दुकानों पर सज-सज के बैठती है और नीचे चाहनेवालों की भीड़ खड़ी रहती है पर कोई सुन्दर नहीं।

और भी यहाँ अमीनाबाद, हजरतगंज, सौदागरों की दुकानें, चौक, मुनशी नवलकिशोर का छापाखाना और नवाब मशकूरुद्दौला की चित्र की दुकान इत्यादि स्थान देखने योग्य हैं।

जैसा कुछ है फिर भी अच्छा है।

ईश्वर यहाँ के लोगों को विद्या का प्रकाश दें और पुरानी बातें ध्यान से निकालैं।

आपका चिरानुगत
यात्री

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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है।

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