मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़्मे गा नहीं सकता
सकूँ लेकिन मिरे दिल को मयस्सर आ नहीं सकता
कोई नग़्मे तो क्या अब मुझसे मेरा साज़ भी ले ले
जो गाना चाहता हूँ आह वो मैं गा नहीं सकता
मता-ए-सोज़-ओ-साज़-ए-ज़िंदगी पैमाना ओ बरबत
मैं ख़ुद को इन खिलौनों से भी अब बहला नहीं सकता
वो बादल सर पे छाए हैं कि सर से हट नहीं सकते
मिला है दर्द वो दिल को कि दिल से जा नहीं सकता
हवस-कारी है जुर्म-ए-ख़ुद-कुशी मेरी शरीअ’त में
ये हद्द-ए-आख़िरी है, मैं यहाँ तक जा नहीं सकता
न तूफ़ाँ रोक सकते हैं न आँधी रोक सकती है
मगर फिर भी मैं उस क़स्र-ए-हसीं तक जा नहीं सकता
वो मुझको चाहती है और मुझ तक आ नहीं सकती
मैं उसको पूजता हूँ और उसको पा नहीं सकता
ये मजबूरी-सी मजबूरी, ये लाचारी-सी लाचारी
कि उसके गीत भी दिल खोलकर मैं गा नहीं सकता
ज़बाँ पर बे-ख़ुदी में नाम उसका आ ही जाता है
अगर पूछे कोई ये कौन है बतला नहीं सकता
कहाँ तक क़िस्स-ए-आलाम-ए-फ़ुर्क़त मुख़्तसर ये है
यहाँ वो आ नहीं सकती, वहाँ मैं जा नहीं सकता
हदें वो खींच रक्खी हैं हरम के पासबानों ने
कि बिन मुजरिम बने पैग़ाम भी पहुँचा नहीं सकता…