‘Mandir’, poems by Manmeet Soni
1
यह ताली बजा-बजाकर नाचने की नहीं,
बल्कि रो-रोकर अपना सिर फोड़ने की जगह थी
जिन्हें अफ़सोस होता था अपने किए पर
उन लोगों ने छोड़ दिया है मन्दिर आना।
2
अपने खोए हुए बच्चे के लिए
मन्नत माँगने आए
उस ग़रीब की
आज फिर चोरी हो गई है चप्पल
सबको पता है कि कल फिर आएगा वह।
3
कोई दुर्गासप्तशती
कोई हनुमान-चालीसा
कोई विष्णुसहस्रनाम
तो कोई शिवपंचाक्षरस्त्रोतम का कर रहा है पाठ
इनसे इतर एक भाषा और है
जो मन्त्र-सिद्ध होकर
मेरी चेतना की कर रही है परिक्रमा।
4
धूप
अगरबत्तियाँ
आरती
मन्त्र
और इनसे उठता धुआँ
ज़िन्दगी के धुएँ से
कुछ कम ही घना है यह धुआँ।
5
चंदू ताऊ का जवान बेटा
मर गया कटकर रेल से,
फिर भी
चंदू ताऊ रोज़ आते हैं मन्दिर
चंदू ताऊ की आस्था को
काट न सकी रेल।
6
‘माता’ नहीं बोल रही है मूर्खो!
वह औरत बोल रही है
जिसे पाँव की जूती समझकर
तुमने बोलने न दिया।
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