लम्बी बातचीत के पश्चात
एक मौन-सा छा जाता है
हमारे बीच
और कौन पहले रखता है फ़ोन
इस पसोपेश में
पसरा सन्नाटा
अजीब-सा लगने लगता है
एक-दूजे की दबी जम्भाइयों को
भाँप ही लेते हैं हम और फिर
यकायक धुँधली-सी पड़ जाती है शाम
तब घण्टों बाद में
घबरा उठती हूँ मैं
मन में उठी
अकस्मात-सी इस विरक्ति से!

सब-कुछ ढक जाता है
उदासियों के कुहासे में
जैसे ख़त्म हो गया हो सब
एक विराम-सा लग गया है सभी पर!

जैसे-जैसे गहराने लगती है रात
अनमनी-सी दुबक जाती हूँ मैं
बिस्तर में ताकि
मन की बैचेनी डूब जाएँ
नींद की गिरफ़्त में।

अलस्सुबह सूरज की किरणें
उतरती हैं मेरे आस-पास
और आदतन तुम आ ही जाते हो
मुझे घेरे मेरे सामने खड़े
बरबस एक मुस्कुराहट छा जाती है
मेरे चेहरे पर
और अपने बालों को सुलझाती
खड़ी आईने के सामने
सोचने लग जाती हूँ मैं कि
कितना कुछ है जो
अभी कहना है शेष!

क्या यही होता है तुम्हारे साथ भी?
लेकिन पक्का जानती हूँ मैं कि
सब कुछ साझा करेंगे हम
सिवा इस ऊब और विरक्ति के
तब तक आओ
करते हैं और एक शाम का इन्तज़ार
दिन भर की घुटन और ऊब को ठेलती
सिर्फ़… सिर्फ़… सिर्फ़…
बातों से भरी एक बातूनी शाम का!

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