“आज एक और रेप हुआ हमारे ज़िले में!”

दोस्त ख़बर पढ़ ही रहा था कि मैं और मेरे कुछ साथी कहने लगे – “यार ग़लती इन्हीं लोगों की होती है, हमेशा टाइट फिटिंग के कपड़े पहनेंगी, रात में बाहर निकलेंगी, लड़कों के साथ घूमेंगी तो यही सब तो होगा।”

लेकिन जैसे ही दोस्त ने पूरी ख़बर पढ़ी तो चाय मानो हमारे गले में अटक-सी गयी। पूरी ख़बर यह थी कि आठ महीने की बच्ची के साथ रेप हुआ और मार डाला गया। हम सब सन्न रह गये।

अगले दिन एक कार्यक्रम हुआ जिसमें रेप के कारणों और उसके पीछे की मानसिक संकीर्णता पर कई सीनियर प्रोफ़ेसर्स के लेक्चर्स हुए। उस कार्यक्रम में ग़ौर करने वाली बात यह थी कि कार्यक्रम का केंद्र बिंदु महिलाओं की सुरक्षा से सम्बंधित था लेकिन सारे लेक्चर्स मर्दों के हुए, उसमें कोई महिला उपस्थित नहीं थी। ख़ैर कार्यक्रम के दौरान पता यह चला कि हम ऐसे मुल्क में रह रहें हैं जहाँ पर हर घंटे में एक रेप होता है। जिनमें से चंद ही हमारे सामने आते हैं वर्ना शेष पीड़िताओं को या तो मार दिया जाता है या फ़िर डरा धमकाकर चुप करा दिया जाता है, अगर यह भी नहीं होता तो एक दिन वे कानून व्यवस्था से थक हारकर ख़ुद ही पस्त हो जाते हैं और जो ग़लती से सामने आ भी जाते हैं, उन्हें नेताओं द्वारा धार्मिक शक्ल देकर भटका दिया जाता है।

अगले दिन यूनिवर्सिटी में प्रोटेस्ट रखा गया। दोस्त ने मुझसे चलने के लिए पूछा। मेरा जवाब हमेशा की तरह तैयार था – “हटाओ यार कुछ होता-वोता नहीं हैं इन सबसे! बस फ़ालतू की भीड़ इकठ्ठा होती है और कुछ राजनितिक छात्र संगठन आम छात्रों की इस भीड़ का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं।”

मगर इस बार उसकी ज़िद के आगे मेरी एक न चली और मैं उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया।

यूनिवर्सिटी मुख्य द्वार से होकर प्रोटेस्ट को आज़ाद भारत चौक तक जाना था। हर विद्यार्थी के हाथ में पोस्टर या बैनर थे जिन पर अलग अलग नारे लिखे थे। किसी पर “हैंग द रेपिस्ट” , तो किसी पर “गवर्नमेंट डाउन डाउन” और भी बहुत कुछ। मुझे ऐसा लग रहा था कि हर तीसरा विद्यार्थी अपने अपने मोबाइल से यह प्रोटेस्ट सोशल मीडिया पर लाइव कर रहा है या कोई और अपडेट देने में व्यस्त है। भीड़ की वजह से मैं अपने दोस्त से बिछड़ गया। वो बस आगे की ही लाइन में था। मैंने कई बार उसे आवाज़ दी लेकिन नारों की आवाज़ की वजह से वो सुन नहीं पाया। ख़ैर प्रोटेस्ट जैसे-तैसे चौक तक पहुँचा। कई छात्रों ने अलग-अलग पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर, रेप केस की जानकारी दी, बताया कि क्या हुआ है और कई छात्र नेताओं ने भी सरकार को जमकर लताड़ा।

मैं थोड़ी देर वहाँ पर रुका लेकिन जब उस भीड़ से ऊबने लगा तो किनारे पेड़ की छाँव में जहाँ सुरक्षा बल ‘दंगा नियंत्रण वाहन’ के साथ खड़े थे वहाँ चला गया। हर व्यक्ति अपनी-अपनी राय रख रहा था, पत्रकार सवाल पर सवाल किये जा रहे थे कि “आप क्यों आए हैं इस प्रदर्शन में?”, “क्या राय है आपकी?” वगैरह-वगैरह।

कुछ दूरी पर एक चचा खड़े हुए थे जो अपने साथी को बता रहे थे कि क्या मसला है? कहाँ रेप हुआ? मैंने देखा कि चचा उस व्यक्ति को समझाने में इतना व्यस्त हो गए कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि उनके साथ उनकी बेटी भी आयी हुई है। उस बच्ची की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा छ: या सात साल रही होगी। वह बार-बार अपने पापा का कुर्ता खींचती और पापा-पापा कहकर उनका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करती लेकिन हर बार पापा कह देते बस दो मिनट रुको चलते हैं। जब बच्ची ने कुर्ता खीचना बंद नहीं किया तब पापा गुस्से में बोले – “बताओ क्या बात है? दो मिनट चुपचाप खड़ी नहीं रह सकतीं?”

बच्ची ने मासूमियत से पूछा – “पापा, ये रेप क्या होता है?”

मैं उस बच्ची का सवाल सुनकर दंग रह गया और सोचने लगा कि क्या जवाब देंगे चचा उसे! इतने में चचा ने इधर-उधर देखा और गुस्से में कहा – “चलो चुपचाप घर चलो।”

शायद उनके पास उस बच्ची के सवाल का कोई जवाब नहीं था, इसीलिए ग़ुस्सा करके चले गए, लेकिन यह छोटी-सी घटना मेरे ज़हन में एक बड़ा सवाल छोड़ गयी कि अगर कल मेरी बेटी मुझसे यही सवाल करेगी तो मैं उसे क्या जवाब दूँगा?

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