समय समय पर आती स्त्रियाँ
मुझे हरदम कविताएँ लगीं

कुछ मेरी कविता के अंश बनीं
तो कुछ कविता बन के उभरीं

मोहित करती रहीं मुझे
उनके अंदर की कविताएँ

कुछ ग़ज़लों सी लगीं
नियमों में बसीं
जिनके व्याकरण भी नहीं समज पाया मैं

कुछ समाज को दर्पन दिखतीं
कोई अपना ही दर्पन भूली
खुद को खोजती
कुछ उस शायरी सी लगीं
जिनको सुनना बहुत दर्दीला था

कुछ अपहरन हुई सीता-सी लगीं
तो कुछ शबरी के मीठे बेर सी
कुछ कैकयी-सी शातीर
तो कुछ उर्मिला-सी अकेली

कुछ उस बेबस द्रौपदी की तरह
जिनका चीर-हरन गावं की पंचायत ने किया
कुछ सभ्यता की जंजीर से बंधी
कुछ लास्ट लोकल-सी खाली-खाली लगीं
तो कुछ मेले में गुम हुये उस बच्चे सी रोती मिलीं
कुछ रात सी गहरी लगीं

इन सब ने खोया था कुछ न कुछ

किसी ने खोया था आत्मसुख
किसी ने खोयी थी बच्चों के लिये अपनी नींद
किसी ने अपना समय
किसी ने अपना जीवन

क्या खोना ही स्त्रीत्व है?

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