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संजय छीपा की कविताएँ
1
कुरेदता हूँ
स्मृतियों की राख
कि लौट सकूँ कविता की तरफ़
एक नितान्त ख़ालीपन में
उलटता-पलटता हूँ शब्दों को
एक सही क्रम में जमाने की
करता हूँ कोशिश
ज़िन्दगी की बेतरतीबी...
मचलें पाँव
मचलें पाँव
कह रहे मन से
आ चलें गाँव।
कहता मन
गाँव रहे न गाँव
केवल भ्रम।
ली करवट
शहरीकरण ने
गाँव लापता।
मेले न ठेले
न ख़ुशियों के रेले
गर्म हवाएँ।
वृक्ष न छाँव
नंगी पगडंडियाँ
जलाएँ...
कविताएँ : जुलाई 2020
माँ ने नहीं देखा है शहर
गुज़रता है मोहल्ले से
जब कभी कोई फेरीवाला
हाँक लगाती है उसे मेरी माँ
माँ ख़रीदती है
रंग-बिरंगे फूलों की छपाई वाली चादर
और...
दिलोदिमाग
दिल है,
गाँव-सा सीधा,
शांत है,
ज़िंदा है,
दयालु है।
दिमाग है,
शहर-सा कपटी,
अशांत है,
नशे में है,
चालू है।
दिल है,
गाँव का पेड़,
छायादार है,
फलदायी है,
तसल्ली से भरा।
दिमाग है,
शहर का ठूँठ,
आत्मप्रेमी है,
मददायी है,
अकड़...