कभी गर ठान लो मन में
समर्पित हो ही जाना है,
जगत कल्याण के हित में
जो अर्पित हो ही जाना है,
तो बंधन मोह का चुन-चुन के तुमको तोड़ना होगा
स्वजन की आँख में आँसू भी तुमको छोड़ना होगा
सहज है स्वार्थ का जीवन, कठिन है त्याग कर जाना।

द्रवित होकर किसी के आँसुओं की धार से अविरल,
कहीं ऐसा न करना लौटकर तुम फिर चले आना।

तड़प कर तात ने तन को
विसर्जित कर दिया अपने,
नयन में मर गए घुटकर
बिचारी माँ के भी सपने,
मगर जो लौट जाते राम तो वे राम न होते
अवध के भूप तो होते मगर भगवान न होते
लौटना मन की दुर्बलता, कर्म है त्याग कर जाना।

द्रवित होकर किसी के आँसुओं की धार से अविरल,
कहीं ऐसा न करना लौटकर तुम फिर चले आना।

सिंहासन पर गिरे आँसू
प्रभु श्रीराम के चू कर,
व्यथा से भर गए बेटे
चरण को माथ से छू कर,
पिघलकर लौटतीं जो सिय, कहानी और कुछ होती
जगत में नारी-धर्मों की निशानी और कुछ होती
लौटना आश्रित होना, है पौरुष त्याग कर जाना।

द्रवित होकर किसी के आँसुओं की धार से अविरल,
कहीं ऐसा न करना लौटकर तुम फिर चले आना।

फफक कर रो पड़ा आँचल
सिसक कर रह गये बाबा,
बिलखती रह गयीं सखियाँ
लुटातीं आँख की आभा,
मगर मुड़ कर न लौटे श्याम यमुना के किनारों पर
अलौकिक प्रेम को त्यागा जगत भर की पुकारों पर
लौटना मोह का बंधन, मुक्ति है त्याग कर जाना।

द्रवित होकर किसी के आँसुओं की धार से अविरल,
कहीं ऐसा न करना लौटकर तुम फिर चले आना।

प्रिया को छोड़ निद्रा में
सुखों को मार कर ठोकर,
विलग हो पुत्र से अपने
चले संसार के होकर,
यदि वो लौट जाते घर, तथागत हो नहीं पाते
समय के भाल पर उज्ज्वल लिखावट हो नहीं पाते
लौटना मात्र गौतम हैं, बुद्ध हैं त्याग कर जाना।

द्रवित होकर किसी के आँसुओं की धार से अविरल,
कहीं ऐसा न करना लौटकर तुम फिर चले आना।