वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
रात दिन सूरत को देखा कीजिए

चाँदनी रातों में इक इक फूल को
बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए

जो तमन्ना बर न आए उम्र भर
उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए

इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर
चाँदनी रातों में रोया कीजिए

पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो
बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए

हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे
क्यूँ किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए

आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें
आप ही इस का मुदावा कीजिए

कहते हैं ‘अख़्तर’ वो सुन कर मेरे शेर
इस तरह हम को न रुसवा कीजिए!

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अख़्तर शीरानी
(4 मई, 1905 - 9 सितम्बर, 1948) ‘अख्तर' शीरानी उर्दू का सबसे पहला शायर है जिसने प्रेयसी को प्रेयसी के रूप में देखा अर्थात् उसके लिये स्त्रीलिङ्ग का प्रयोग किया। इतना ही नहीं, उसने बड़े साहस के साथ बार-बार उसका नाम भी लिया। रूढ़ियों के प्रति इस विद्रोह द्वारा न केवल उर्दू शायरों के दिलों की झिझक दूर हुई और उर्दू शायरी के लिये नई राहें खुलीं, उर्दू शायरी को एक नई शैली और नया कोण भी मिला और उर्दू की रोती-बिसूरती शायरी में ताजगी और रंगीनी आई।

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