स्वप्निल तिवारी की ग़ज़लें पढ़कर बिलकुल नहीं लगता कि ग़ज़ल एक नियमबद्ध विधा है। तुले-तुलाये वज़नों का भार साथ लेकर चलते अल्फ़ाज़ भी पाठकीय चेतना पर इतने हल्के पड़ते हैं कि मिसरे में कही गयी बात के अलावा किसी भी और शै को पाठक की अटेंशन एकदम नहीं मिलती। कही गयी बात अपनी सुन्दरता भी पाठक पर अपने कथन से खोलती है, शैली से नहीं। यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि स्वप्निल तिवारी की इन ग़ज़लों के मज़मून ही इतने सुन्दर हैं कि उन्हें रचनात्मकता और पाठकीय रस-क्षुधा की तृप्ति के लिए अतिरिक्त बनावटी साहित्यिक अलंकरणों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
स्वप्निल का दूसरा ग़ज़ल-संग्रह ‘ज़िन्दगी इक उदास लड़की है’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है, प्रस्तुत हैं उसी से कुछ ग़ज़लें।
1
टेबल लैम्प जला रहता है,
कोना एक जगा रहता है।
दो लोगों के भी घर में मुझसे,
कोई न कोई ख़फ़ा रहता है।
हर दस्तक बेकार हुई है,
क्या इस घर में ख़ुदा रहता है।
थमता नहीं है दर्द का ट्रैफ़िक,
मेरा ज़ख़्म हरा रहता है।
हादसे भी होते रहते हैं,
मेरा दिल भी लगा रहता है।
2
हमारी प्यास इक नदी बनेगी,
फिर उसमें इक जलपरी बनेगी।
अगर दुबारा बनी ये दुनिया,
तो पहले तेरी गली बनेगी।
ये होंठ हव्वा के बन रहे हैं,
इन्हीं पे पहली हँसी बनेगी।
दिए-सी आँखों में इतने आँसू!
अब इस नमी से नमी बनेगी।
ख़ुदा बनेगा तो क्या बनेगा?
जो मैं बना तो ख़ुदी बनेगी।
बनेगा इस इंतज़ार से क्या?
रुकी हुई इक घड़ी बनेगी।
3
इसीलिए तो मेरी रौशनी भी काली है,
जो रात काट न पाया, वो रात टाली है।
हमारी आख़िरी सिगरेट थी ये, अरे दुनिया
जो तुझपे ग़ुस्से में हम ने, अभी जला ली है।
नहीं था गीत ही हम बे-समाअतों का कहीं,
सो हम ने तेरी ख़मोशी की धुन बना ली है।
बचा लो, इश्क़ अगर डूबता नज़र आये,
अभी तो नूह की कश्ती भी थोड़ी ख़ाली है।
हुए हैं हाथ मिरे शल अजीब मौक़े पर,
किसी ने मेरी तरफ़ ज़िन्दगी उछाली है।
तू जिसमें छेड़ रही है मुझे, उसी लम्हा
मिरे लबों पे कोई नर्म-नर्म गाली है।
तू मेरी पहली नहीं, तीसरी मुहब्बत है
सो तेरी दुनिया मेरी कुछ तो देखी-भाली है।
4
तुम्हारे शह्र में मुझ ऐसे जंगली के लिए,
दरख़्त ही नहीं दिखते हैं ख़ुदकुशी के लिए।
मैं रोज़ रात यही सोचकर तो सोता हूँ,
के कल से वक़्त निकालूँगा ज़िन्दगी के लिए।
वो खारे पानी की मछली जहाँ भटक आई,
बचा रहा हूँ मैं आँसू उसी नदी के लिए।
मिरा ही हिस्सा हैं तेरे तमाम शैदाई,
कोई उदास नहीं है तेरी गली के लिए।
वो लम्हा आ ही गया, इंतेज़ार का लम्हा,
घड़ी भी बंद है पहले से इस घड़ी के लिए।
लुढ़क गया है अब इक ओर चाक सूरज का,
नहीं है रात की मिट्टी भी रौशनी के लिए।
स्वप्निल तिवारी की नज़्में