Poems: Swapnil Tiwari
Earth Hour
मेरी ख़ाहिश है हर महीने में
रात इक इस तरह की हो जिसमें
शह्र की सारी बत्तियाँ इक साथ
एक घण्टे को चुप करा दी जाएँ
शह्र के लोग छत पे भेजे जाएँ
और तारों से जब नज़र उलझे
तब अँधेरे का हुस्न उन पे खुले
कहकशाँ टूट कर गिरे सब पे
सब की आँखों के ज़ख्म भर जाएँ…
मुझ को गर इंतेख़ाब करना हो
मैं अमावास की रात को चुन लूँ
चाँद की ग़ैरहाज़िरी में ये बात
साफ़ शायद ज़ियादा हो हम पे
‘अपना नुक़सान कर लिया है बहुत
हमने ईजाद रौशनी कर के…’
दीवाना
बगूला देखना है ना!
इधर आओ
कि मैं मानूस हूँ दुनिया के सहराओं से सारे
कि नक़्शा खींच सकता हूँ किसी भी दश्त का मैं
तुम्हें कैसा बगूला देखना है?
ये सब कहते हुए
वो इक रस्सी को लट्टू पर लपेटे जा रहा था।
Coffee Cup Reading
उसे मैसेज तो भेजा है
कि कॉफ़ी पर मिलो मुझ से
वो आ जायेगी तो अच्छा
मैं पहले सिर्फ़ दो कॉफ़ी मँगाऊँगा
मैं कैपेचीनो पीता हूँ
वो कैसी कॉफ़ी पीती है
इसका अंदाज़ा तो उसके आने पर होगा…
हमारे पास तो बातें भी कम हैं
सो कॉफ़ी जल्द पी लेंगे।
जो उसके कप में थोड़ा झाग कॉफ़ी का बचा होगा
मैं उसकी शेप को पढ़कर उसे फ्यूचर बताऊँगा
बताऊँगा उसे मैं
कैसे वो मुझ जैसे इक लड़के की दुनिया को बदल देगी…
(उसे मालूम होगा क्या? कि कॉफ़ी कप की रीडिंग का तरीक़ा ये नहीं होता?)
मैं कैफ़े आ चुका हूँ…
…वो भी रस्ते में कहीं होगी
बहुत से लोग कैफ़े आ के पढ़ते लिखते रहते हैं
मुहम्मद अल्वी की नज़्में तो मैं भी साथ लाया हूँ
ये होगा तो नहीं फिर भी, वो आयी ही नहीं तो फिर
इन्हीं लोगों के जैसे मैं भी पढ़ कर वक़्त काटूँगा।
उसे आने में देरी हो रही है
मैं इक कॉफ़ी तो तन्हा पी चुका हूँ
ज़रा सा झाग कप में है जिसे देखो तो लगता है
कि इक लड़का अकेला बैठकर कुछ पढ़ रहा है।
तसल्ली दे रहा हूँ अब मैं ख़ुद को
ये मेरी शाम का फ़्यूचर नहीं है
…कि कॉफ़ी कप की रीडिंग का तरीक़ा ये नहीं होता…
इंतेज़ार
वक़्त पिघलकर
पारे की इक बूँद बना है
और इस बूँद के अंदर मैं हूँ
भाग रहा हूँ
पारा यूँ ही अपनी जगह पर लुढ़क रहा है
मेरे अगले पाँव पे माज़ी
मेरे पिछले पाँव पे फ़रदा
इन दोनों के बीच रबर के जैसा मेरा हाल खिंचा है
मेरे चारों जानिब घड़ियाँ लटक रही हैं
एक ही पल में
लेट भी हूँ मैं, वक़्त पे भी हूँ
और वक़्त से पहले भी हूँ
सोच रहा हूँ
वक़्त का मालिक
गोल्फ़ की छड़ी ले कर आये
वक़्त की बूँद को गेंद समझ ले
और इक लम्बा शॉट लगाए
ऐसा शॉट के गेंद वक़्त की
ब्लैकहोल में ‘इन’ हो जाये…
वक़्त का पारा
वो गुब्बारा
ब्लैक होल में छोड़के जब मैं
दूसरी जानिब बाहर आऊँ
तुमको पाऊँ।
काली रात
काली रात है
काली रात पे रंग नहीं चढ़ता है कोई
झिलमिल-झिलमिल करते तारे
सुर्ख़ अगर हो जाएँ भी तो
कौन ख़याल करेगा इनका
चाँद ही होता
सुर्ख़ रंग उस पर फबता भी।
काली रात है
काली रात पे रंग नहीं चढ़ने वाला है
मैंने अपनी नब्ज़ काटकर
अपना लहू बर्बाद कर दिया…
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