Poems by Shariq Kaifi from the book ‘Khidki Toh Maine Khol Hi Li’

छुट्टी का दिन

ये मेरी मौत पर छुट्टी का दिन है
कलेंडर पर छपी ये आज की तारीख़
मेरी मौत ही से लाल हो सकती थी शायद
सवेरे तक जो काली रौशनाई से लिखी थी
मज़ा ही कुछ अलग है ऐसी छुट्टी का
अचानक जो मिली हो
ये मेरा आख़िरी तोहफ़ा है अपने साथियों को
वगर्ना पीर का दिन
कितना सरदर्दी भरा होता है दफ्तर का
ये दुनिया जानती है।

मुजरिम होने की मजबूरी

वज़ू जाए तो जाए
फ़रिश्ते कुछ भी लिख लें नामा-ए-आ’माल में मेरे
मगर मुँह से मिरे गाली तो निकलेगी
अगर इस तौलिए में च्यूँटियाँ होंगी
थकन से चूर हो कर
जिस से माथे का पसीना पोंछता हूँ मैं।

मेरे हिस्से की गाली

हाँ वो गाली भी मिरे हिस्से की
मेरी ही तरह घर से निकलती है पुरानी साइकल पर बैठ कर
उसे भी ये नहीं मालूम होता
कि वो किस मुँह पे थूकी जाएगी आज
इधर मैं भी नहा-धो कर
निकल आता हूँ बाहर
ढूँढने वो मोड़ वो महफ़िल
जहाँ टकराऊँगा उस से
कहीं ये मेरी ज़िम्मेदारियों में है
कि वो हालात पैदा कर सकूँ
जिस में किसी गाली से मेरे कान तक का रास्ता आसान हो जाए
और ये सब
इस तरह होता है मेरे साथ
कि सोचूँ तो अक्ल हैरान हो जाए।

यही रस्सी मिली थी

लटकने को यही रस्सी मिली थी
ज़मीं पर गिर के मैं हँसने लगा इस मौत पर
अभी कुछ देर पहले
जो मुझे इतनी भयानक लग रही थी।

शादी का दिन

ये मुझ पर तब खुला
कि ये दिन भी किसी भी और दिन जैसा ही कोई आम दिन है
मैं जब इक हाथ से सेहरा सम्भाले
शेरवानी में
बहुत ही तंग से इक टॉयलेट में
सीट पर बैठा हुआ था।

माहोल बनाने वाले जुम्ले

आधा सिग्रेट पी कर फेंक दिया मैंने
उस के हिस्से का
जिस के ग़म में सुनता हूँ
दुनिया को मैं ने छोड़ दिया
और मैं ख़ामोशी से बैठा सोच रहा हूँ
ये दुनिया भी कौन सी दुनिया में जीती है
दुनिया छोड़ दी मैं ने
और ख़ुद मुझ को ये मालूम नहीं है
ये भी सुनने में आया है
जब से उस की मौत हुई है
गुम-सुम हूँ मैं
दूर ख़ला में जाने क्या तकता रहता हूँ
दूर ख़ला में तकना क्या अच्छा जुमला है
मुझ को भी अच्छा लगता है
कहने वालों को तो और ज़ियादा अच्छा लगता होगा
झूट है सब कुछ
लेकिन क्यों तर्दीद करूँ मैं
यही तो वो जुम्ले हैं जो माहोल बनाए रखते हैं कुछ
वर्ना सच्ची बात तो ये है
कोशिश कर के आँखों को नम रखना
शेव बढ़ाए रखना
ये भी एक तरह का सुख है
मुझे तो उस की मौत से बढ़ कर
उस के ग़म की मौत का दुख है।

जीत गया जीत गया

आओ
अब ढूँढो मुझे
फिसड्डी कह के मुझ को छेड़ने वालो
हराओ अब मुझे
हाँ मुझे भी खेल लगता था ये सब कुछ इब्तिदा में
मगर ये भी तो सोचो
मुसलसल हार कोई खेल है जो खेल उस को मान लेता मैं
कहाँ तक हारता है
मिरे छुपने के सब कोने उजागर हो गए थे
बहुत आसान होता जा रहा था ढूँढना मुझ को
मुझे अब जीतना था
किसी क़ीमत पे मुझ को जीतना था
सो मैं ने ये किया
वो आहट जो मिरी दुश्मन रही थी आज तक
मैं ने उसी को मार डाला
और जा कर छुप गया खुद क़ब्र के तख़्तों के पीछे
मिट्टी के नीचे।

यह भी पढ़ें: ‘अदाकारी नहीं आती मुझे तो क्या करूँ मैं’

Book by Shariq Kaifi:

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शारिक़ कैफ़ी
शारिक़ कैफ़ी उर्दू के प्रतिष्ठित शायर हैं, जिनका जन्म बरेली में 1 जून, 1961 में हुआ। इनके शायरी के चार संग्रह 'आम सा रद्द-ए-अमल', 'यहाँ तक रौशनी आती कहाँ थी', 'अपने तमाशे का टिकट' व 'खिड़की तो मैंने खोल ही ली' आ चुके हैं और शीघ्र ही नयी किताब 'क़ब्रिस्तान के नल पर' आने वाली है।

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