“प्रेम, प्रेम, प्रेम।”

“क्या हुआ है तुम्हें, तबियत सही है ना?”

“हाँ, तबियत को क्या हुआ?! बस तीन बार कुछ बोलने का मन हुआ। आज तो बनता है, नहीं?”

“ह्म्म्म!!”

“ह्म्म्म क्या? प्यार पर भी कचहरी ले जाओगी क्या?”

“अपेक्षाओं के विरुद्ध और हठ में सना प्यार भी आवेश में दिए गए तलाक़ से कम तो नहीं? अंतर केवल इतना ही है कि एक आजादी की आड़ में घृणा है और एक प्रेम की आड़ में क़ैद…।”

“ह्म्म्म!!”

“अब तुम क्यों ह्म्म्म करने लगे? क्या सोच रहे हो?”

“यही कि हमारे बीच तो वैसा प्यार नहीं?! नहीं है ना?”

“सोचो सोचो.. ” 😉

पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!