क्या मैं इस बेंच पर बैठ सकती हूँ? नहीं, आप उठिए नहीं! मेरे लिए यह कोना ही काफ़ी है। आप शायद हैरान होंगे कि मैं दूसरी बेंच पर क्यों नहीं जाती? इतना बड़ा पार्क, चारों तरफ़ ख़ाली बेंचें, मैं आपके पास ही क्यों धँसना चाहती हूँ? आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूँ? जिस बेंच पर आप बैठे हैं, वह मेरी है। जी हाँ, मैं यहाँ रोज़ बैठती हूँ। नहीं, आप ग़लत न समझें। इस बेंच पर मेरा कोई नाम नहीं लिखा है। भला म्यूनिसिपैलिटी की बेंचों पर नाम कैसा? लोग आते हैं, घड़ी-दो घड़ी बैठते हैं, और फिर चले जाते हैं। किसी को याद भी नहीं रहता कि फ़लाँ दिन फ़लाँ आदमी यहाँ बैठा था। उसके जाने के बाद बेंच पहले की तरह ही ख़ाली हो जाती है। जब कुछ देर बाद कोई नया आगन्तुक आकर उस पर बैठता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उससे पहले वहाँ कोई स्कूल की बच्ची या अकेली बुढ़िया या नशे में धुत्त जिप्सी बैठा होगा।

नहीं जी, नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहाँ आदमी टिककर रहे—तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर क़ब्रों के—हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क़ब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी ख़ास अन्तर नहीं पड़ता। कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझकर दूसरे की क़ब्र में घुसना पसन्द नहीं करेगा!

आप उधर देख रहे हैं घोड़ा-गाड़ी की तरफ़? नहीं, इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। शादी-ब्याह के मौक़ों पर लोग अब भी घोड़ा-गाड़ी इस्तेमाल करते हैं। मैं तो हर रोज़ देखती हूँ। इसीलिए मैंने यह बेंच अपने लिए चुनी है। यहाँ बैठकर आँखें सीधी गिरजे पर जाती हैं, आपको अपनी गर्दन टेढ़ी नहीं करनी पड़ती। बहुत पुराना गिरजा है। इस गिरजे में शादी करवाना बहुत बड़ा गौरव माना जाता है। लोग आठ-दस महीने पहले से अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। वैसे सगाई और शादी के बीच इतना लम्बा अन्तराल ठीक नहीं। कभी-कभी बीच में मन-मुटाव हो जाता है, और ऐन विवाह के मुहूर्त पर वर-वधू में से कोई भी दिखायी नहीं देता। उन दिनों यह जगह सुनसान पड़ी रहती है। न कोई भीड़, न कोई घोड़ा-गाड़ी। भिखारी भी ख़ाली हाथ लौट जाते हैं। ऐसे ही एक दिन मैंने सामनेवाली बेंच पर एक लड़की को देखा था। अकेली बैठी थी और सूनी आँखों से गिरजे को देख रही थी।

पार्क में यही एक मुश्किल है। इतने खुले में सब अपने-अपने में बन्द बैठे रहते हैं।

आप किसी के पास जाकर सान्त्वना के दो शब्द भी नहीं कह सकते। आप दूसरों को देखते हैं, दूसरे आपको। शायद इससे भी कोई तसल्ली मिलती होगी। यही कारण है, अकेले कमरे में जब तकलीफ़ दुश्वार हो जाती है, तो अक्सर लोग बाहर चले आते हैं। सड़कों पर। पब्लिक पार्क में। किसी पब में। वहाँ आपको कोई तसल्ली न भी दे, तो भी आपका दुःख एक जगह से मुड़कर दूसरी तरफ़ करवट ले लेता है। इससे तकलीफ़ का बोझ कम नहीं होता, लेकिन आप उसे कुली के सामान की तरह एक कन्धे से उठाकर दूसरे कन्धे पर रख देते हैं। यह क्या कम राहत है? मैं तो ऐसा ही करती हूँ, सुबह से ही अपने कमरे से बाहर निकल आती हूँ। नहीं, नहीं! आप गलत न समझें, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं। मैं धूप की ख़ातिर यहाँ आती हूँ— आपने देखा होगा, सारे पार्क में सिर्फ़ यही एक बेंच है, जो पेड़ के नीचे नहीं है। इस बेंच पर एक पत्ता भी नहीं झरता। फिर इसका एक बड़ा फ़ायदा यह भी है कि यहाँ से मैं सीधे गिरजे की तरफ़ देख सकती हूँ, लेकिन यह शायद मैं आपसे पहले ही कह चुकी हूँ।

आप सचमुच सौभाग्यशाली हैं। पहले दिन यहाँ आए और सामने घोड़ा-गाड़ी! आप देखते रहिए, कुछ ही देर में गिरजे के सामने छोटी-सी भीड़ जमा हो जाएगी। उनमें से ज़्यादातर लोग ऐसे होते हैं, जो न वर को जानते हैं, न वधू को। लेकिन एक झलक पाने के लिए घण्टों बाहर खड़े रहते हैं। आपके बारे में मुझे मालूम नहीं, लेकिन कुछ चीज़ों को देखने की उत्सुकता जीवन-भर ख़त्म नहीं होती। अब देखिए, आप इस पेराम्बुलेटर के आगे बैठे थे। पहली इच्छा यह हुई, झाँककर भीतर देखूँ, जैसे आपका बच्चा औरों से अलग होगा। अलग होता नहीं। इस उम्र में सारे बच्चे एक जैसे ही होते हैं— मुँह में चूसनी दबाए लेटे रहते हैं। फिर भी जब मैं किसी पेराम्बुलेटर के सामने से गुज़रती हूँ, तो एक बार भीतर झाँकने की ज़बरदस्त इच्छा होती है।

मुझे यह सोचकर काफ़ी हैरानी होती है कि जो चीज़ें हमेशा एक जैसी रहती हैं, उनसे ऊबने के बजाय आदमी सबसे ज़्यादा उन्हीं को देखना चाहता है, जैसे प्राम में लेटे बच्चे या नव-विवाहित जोड़े की घोड़ा-गाड़ी या मुर्दों की अर्थी।

आपने देखा होगा, ऐसी चीज़ों के इर्द-गिर्द हमेशा भीड़ जमा हो जाती है। अपना बस हो या न हो, पाँव ख़ुद-ब-ख़ुद उनके पास खिंचे चले आते हैं।

मुझे कभी-कभी यह सोचकर बड़ा अचरज होता है कि जो चीज़ें हमें अपनी ज़िन्दगी को पकड़ने में मदद देती हैं, वे चीज़ें हमारी पकड़ के बाहर हैं। हम न उनके बारे में कुछ सोच सकते हैं, न किसी दूसरे को बता सकते हैं।

मैं आपसे पूछती हूँ— क्या आप अपनी जन्म की घड़ी के बारे में कुछ याद कर सकते हैं, या अपनी मौत के बारे में किसी को कुछ बता सकते हैं, या अपने विवाह के अनुभव को हू-ब-हू अपने भीतर दुहरा सकते हैं? आप हँस रहे हैं… नहीं, मेरा मतलब कुछ और था। कौन ऐसा आदमी है, जो अपने विवाह के अनुभव को याद नहीं कर सकता! मैंने सुना है, कुछ ऐसे देश हैं जहाँ जब तक लोग नशे में धुत्त नहीं हो जाते, तब तक विवाह करने का फ़ैसला नहीं लेते… और बाद में उन्हें उसके बारे में कुछ याद नहीं रहता। नहीं जी, मेरा मतलब ऐसे अनुभव से नहीं था।

मेरा मतलब था, क्या आप उस क्षण को याद कर सकते हैं, जब आप एकाएक यह फ़ैसला कर लेते हैं कि आप अलग न रहकर किसी दूसरे के साथ रहेंगे… ज़िन्दगी-भर? मेरा मतलब है, क्या आप सही-सही उस बिन्दु पर अँगुली रख सकते हैं, जब आप अपने भीतर के अकेलेपन को थोड़ा-सा सरकाकर किसी दूसरे को वहाँ आने देते हैं?

जी हाँ… उसी तरह जैसे कुछ देर पहले आपने थोड़ा-सा सरककर मुझे बेंच पर आने दिया था और अब मैं आपसे ऐसे बातें कर रही हूँ, मानो आपको बरसों से जानती हूँ।

लीजिए, अब दो-चार सिपाही भी गिरजे के सामने खड़े हो गए। अगर इसी तरह भीड़ जमा होती गई, तो आने-जाने का रास्ता भी रुक जाएगा। आज तो ख़ैर धूप निकली है, लेकिन सर्दी के दिनों में भी लोग ठिठुरते हुए खड़े रहते हैं। मैं तो बरसों से यह देखती आ रही हूँ… कभी-कभी तो यह भ्रम होता है कि पन्द्रह साल पहले मेरे विवाह के मौक़े पर जो लोग जमा हुए थे, वही लोग आज भी हैं, वही घोड़ा-गाड़ी, वही इधर-उधर घूमते हुए सिपाही… जैसे इस दौरान कुछ भी नहीं बदला है! जी हाँ, मेरा विवाह भी इसी गिरजे में हुआ था। लेकिन यह मुद्दत पहले की बात है। तब सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी कि घोड़ा-गाड़ी सीधे गिरजे के दरवाज़े पर आकर ठहर सके। हमें उसे गली के पिछवाड़े रोक देना पड़ा था और मैं अपने पिता के साथ पैदल चलकर यहाँ तक आयी थी। सड़क के दोनों तरफ़ लोग खड़े थे और मेरा दिल धुक-धुक कर रहा था कि कहीं सबके सामने मेरा पाँव न फिसल पड़े। पता नहीं, वे लोग अब कहाँ होंगे, जो उस रोज़ भीड़ में खड़े मुझे देख रहे थे! आप क्या सोचते हैं? अगर उनमें से कोई आज मुझे देखे, तो क्या पहचान सकेगा कि बेंच पर बैठी यह अकेली औरत वही लड़की है, जो सफ़ेद पोशाक में पन्द्रह साल पहले गिरजे की तरफ़ जा रही थी? सच बताइए, क्या पहचान सकेगा? आदमियों की तो बात मैं नहीं जानती, लेकिन मुझे लगता है कि वह घोड़ा मुझे ज़रूर पहचान लेगा, जो उस दिन हमें खींचकर लाया था…

जी हाँ, घोड़ों को देखकर मैं हमेशा हैरान रह जाती हूँ। कभी आपने उनकी आँखों में झाँककर देखा है? लगता है, जैसे वे किसी बहुत ही आत्मीय चीज़ से अलग हो गए हैं, लेकिन अभी तक अपने अलगाव के आदी नहीं हो सके हैं। इसीलिए वे आदमियों की दुनिया में सबसे अधिक उदास रहते हैं। किसी चीज़ का आदी न हो पाना, इससे बड़ा और कोई दुर्भाग्य नहीं। वे लोग जो आख़िर तक आदी नहीं हो पाते, या तो घोड़ों की तरह उदासीन हो जाते हैं, या मेरी तरह धूप के एक टुकड़े की खोज में एक बेंच से दूसरी बेंच का चक्कर लगाते रहते हैं।

क्या कहा आपने? नहीं, आपने शायद मुझे ग़लत समझ लिया। मेरे कोई बच्चा नहीं, यह मेरा सौभाग्य है। बच्चा होता, तो शायद मैं कभी अलग नहीं हो पाती। आपने देखा होगा, आदमी और औरत में प्यार न भी रहे, तो भी बच्चे की ख़ातिर एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। मेरे साथ कभी ऐसी रुकावट नहीं रही।

इस लिहाज़ से मैं बहुत सुखी हूँ— अगर सुख का मतलब है कि हम अपने अकेलेपन को ख़ुद चुन सकें।

लेकिन चुनना एक बात है, आदी हो सकना बिल्कुल दूसरी बात। जब शाम को धूप मिटने लगती है, तो मैं अपने कमरे में चली जाती हूँ। लेकिन जाने से पहले मैं कुछ देर उस पब में ज़रूर बैठती हूँ, जहाँ वह मेरी प्रतीक्षा करता था। जानते हैं, उस पब का नाम? बोनापार्ट! जी हाँ, कहते हैं, जब नेपोलियन पहली बार इस शहर में आया, तो उस पब में बैठा था, लेकिन उन दिनों मुझे इसका कुछ पता नहीं था। जब पहली बार उसने मुझसे कहा कि हम बोनापार्ट के सामने मिलेंगे, तो मैं सारी शाम शहर के दूसरे सिरे पर खड़ी रही, जहाँ नेपोलियन घोड़े पर बैठा है। आपने कभी अपनी पहली डेट इस तरह गुज़ारी है कि आप सारी शाम पब के सामने खड़े रहें और आपकी मंगेतर पब्लिक-स्टेचू के नीचे! बाद में जो उसका शौक़ था, वह मेरी आदत बन गई। हम दोनों हर शाम कभी उस जगह जाते, जहाँ मुझे मिलने से पहले वह बैठता था, या उस शहर के उन इलाक़ों में घूमने निकल जाते, जहाँ मैंने बचपन गुज़ारा था।

यह आपको कुछ अजीब नहीं लगता कि जब हम किसी व्यक्ति को बहुत चाहने लगते हैं, तो न केवल वर्तमान में उसके साथ रहना चाहते हैं, बल्कि उसके अतीत को भी निगलना चाहते हैं, जब वह हमारे साथ नहीं था?

हम इतने लालची और ईर्ष्यालु हो जाते हैं कि हमें यह सोचना भी असहनीय लगता है कि कभी ऐसा समय रहा होगा, जब वह हमारे बग़ैर जीता था, प्यार करता था, सोता-जागता था। फिर अगर कुछ साल उसी एक आदमी के साथ गुज़ार दें, तो यह कहना भी असम्भव हो जाता है कि कौन-सी आदत आपकी अपनी है, कौन-सी आपने दूसरे से चुरायी है… जी हाँ, ताश के पत्तों की तरह वे इस तरह आप में घुल-मिल जाती हैं कि आप किसी एक पत्ते को उठाकर नहीं कह सकते कि यह पत्ता मेरा है, और वह पत्ता उसका।

देखिए, कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि मरने से पहले हम में से हर एक को यह छूट मिलनी चाहिए कि हम अपनी चीर-फाड़ ख़ुद कर सकें। अपने अतीत की तहों को प्याज़ के छिलकों की तरह एक-एक करके उतारते जाएँ… आपको हैरानी होगी कि सब लोग अपना-अपना हिस्सा लेने आ पहुँचेंगे, माँ-बाप, दोस्त, पति… सारे छिलके दूसरों के, आख़िर की सूखी डण्ठल आपके हाथ में रह जाएगी, जो किसी काम की नहीं, जिसे मृत्यु के बाद जला दिया जाता है, या मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है।

देखिए, अक्सर कहा जाता है कि हर आदमी अकेला मरता है। मैं यह नहीं मानती। वह उन सब लोगों के साथ मरता है, जो उसके भीतर थे, जिनसे वह लड़ता था या प्रेम करता था। वह अपने भीतर पूरी एक दुनिया लेकर जाता है। इसीलिए हमें दूसरों के मरने पर जो दुःख होता है, वह थोड़ा-बहुत स्वार्थी क़िस्म का दुःख है, क्योंकि हमें लगता है कि इसके साथ हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए ख़त्म हो गया है।

अरे देखिए… वह जाग गया। ज़रा पेराम्बुलेटर हिलाइए। धीरे-धीरे हिलाते जाइए, अपने आप चुप हो जाएगा। मुँह में चूसनी इस तरह दबाकर लेटा है, जैसे छोटा-मोटा सिगार हो! देखिए—कैसे ऊपर बादलों की तरफ़ टुकुर-टुकुर ताक रहा है! मैं जब छोटी थी, तब लकड़ी लेकर बादलों की तरफ़ इस तरह घुमाती थी, जैसे वे मेरे इशारों पर ही आकाश में चल रहे हों। आप क्या सोचते हैं? बच्चे इस उम्र में जो कुछ देखते हैं या सुनते हैं, वह क्या बाद में उन्हें याद रहता है? रहता ज़रूर होगा— कोई आवाज़, कोई झलक, या कोई आहट, जिसे बड़े होकर हम उम्र के जाले में खो देते हैं। लेकिन किसी अनजाने मौक़े पर, ज़रा-सा इशारा पाते ही हमें लगता है कि इस आवाज़ को कहीं हमने सुना है, यह घटना या ऐसी ही कोई घटना पहले कभी हुई है, और फिर उसके साथ-साथ बहुत-सी चीज़ें अपने-आप खुलने लगती हैं, जो हमारे भीतर अरसे से जमा थीं, लेकिन रोज़मर्रा की दौड़-धूप में जिनकी तरफ़ हमारा ध्यान जाता नहीं, लेकिन वे वहाँ हैं, घात लगाए कोने में खड़ी रहती हैं—मौक़े की तलाश में—और फिर किसी घड़ी सड़क पर चलते हुए या ट्राम की प्रतीक्षा करते हुए या रात को सोने और जागने के बीच वे अचानक आपको पकड़ लेती हैं और तब आप कितना ही हाथ-पाँव क्यों न मारें, कितना ही क्यों न छटपटाएँ, वे आपको छोड़ती नहीं। मेरे साथ एक रात ऐसे ही हुआ था…।

हम दोनों सो रहे थे और तब मुझे एक अजीब-सा खटका सुनायी दिया। बिल्कुल वैसे ही, जैसे बचपन में मैं अपने अकेले कमरे में हड़बड़ाकर जाग उठती थी और सहसा यह भ्रम होता था कि दूसरे कमरे में माँ और बाबू नहीं हैं, और मुझे लगता था कि अब मैं उन्हें कभी नहीं देख सकूँगी और तब मैं चीख़ने लगती थी। लेकिन उस रात मैं चीखी-चिल्लायी नहीं। मैं बिस्तर से उठकर देहरी तक आयी, दरवाज़ा खोलकर बाहर झाँका, बाहर कोई न था। वापस लौटकर उसकी तरफ़ देखा। वह दीवार की तरफ़ मुँह मोड़कर सो रहा था, जैसे वह हर रात सोता था। उसे कुछ भी सुनायी नहीं दिया था। तब मुझे पता चला कि वह खटका कहीं बाहर नहीं, मेरे भीतर हुआ था। नहीं, मेरे भीतर भी नहीं, अन्धेरे में एक चमगादड़ की तरह वह मुझे छूता हुआ निकल गया था — न बाहर, न भीतर, फिर भी चारों तरफ़ फड़फड़ाता हुआ। मैं पलंग पर आकर बैठ गई, जहाँ वह लेटा था और धीरे-धीरे उसकी देह को छूने लगी। उसकी देह के उन सब कोनों को छूने लगी, जो एक ज़माने में मुझे तसल्ली देते थे। मुझे यह अजीब-सा लगा कि मैं उसे छू रही हूँ और मेरे हाथ ख़ाली-के-ख़ाली वापस लौट आते हैं। बरसों पहले की गूँज, जो उसके अंगों से निकलकर मेरी आत्मा में बस जाती थी, अब कहीं न थी। मैं उसी तरह उसकी देह को टोह रही थी, जैसे कुछ लोग पुराने खण्डहरों पर अपने नाम खोजते हैं, जो मुद्दत पहले उन्होंने दीवारों पर लिखे थे। लेकिन मेरा नाम वहाँ कहीं न था। कुछ और निशान थे, जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था, जिनका मुझसे दूर का भी वास्ता न था। मैं रात-भर उसके सिरहाने बैठी रही और मेरे हाथ मुर्दा होकर उसकी देह पर पड़े रहे… मुझे यह भयानक-सा लगा कि हम दोनों के बीच जो ख़ालीपन आ गया था, वह मैं किसी से नहीं कह सकती। जी हाँ, अपने वकील से भी नहीं, जिन्हें मैं अरसे से जानती थी।

वे समझे, मैं सठिया गई हूँ। कैसा खटका! क्या मेरा पति किसी दूसरी औरत के साथ जाता था? क्या वह मेरे प्रति क्रूर था? जी हाँ, उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी और मैं थी कि एक ईडियट की तरह उनका मुँह ताकती रही। और तब मुझे पहली बार पता चला कि अलग होने के लिए कोर्ट-कचहरी जाना ज़रूरी नहीं है। अक्सर लोग कहते हैं कि अपना दुःख दूसरों के साथ बाँटकर हम हल्के हो जाते हैं। मैं कभी हल्की नहीं होती। नहीं जी, लोग दुःख नहीं बाँटते, सिर्फ़ फ़ैसला करते हैं — कौन दोषी है और कौन निर्दोष। मुश्किल यह है, जो एक व्यक्ति आपकी दुखती रग को सही-सही पहचान सकता है, उसी से हम अलग हो जाते हैं। इसीलिए मैं अपने मुहल्ले को छोड़कर शहर के इस इलाक़े में आ गई। यहाँ मुझे कोई नहीं जानता। यहाँ मुझे देखकर कोई यह नहीं कहता कि देखो, यह औरत अपने पति के साथ आठ वर्ष रही और फिर अलग हो गई। पहले जब कोई इस तरह की बात कहता था, तो मैं बीच सड़क पर खड़ी हो जाती थी। इच्छा होती थी, लोगों को पकड़कर शुरू से आख़िर तक सब कुछ बताऊँ। कैसे हम पहली शाम अलग-अलग एक-दूसरे की प्रतीक्षा करते रहे थे — वह पब के सामने, मैं मूर्ति के नीचे। कैसे उसने पहली बार मुझे पेड़ के तने से सटाकर चूमा था, कैसे मैंने पहली बार डरते-डरते उसके बालों को छुआ था। जी हाँ, मुझे यह लगता था कि जब तक मैं उन्हें यह सच नहीं बता दूँगी, तब तक उस रात के बारे में कुछ नहीं कह सकूँगी, जब पहली बार मेरे भीतर खटका हुआ था और बरसों बाद यह इच्छा हुई थी कि मैं दूसरे कमरे में भाग जाऊँ, जहाँ मेरे माँ-बाप सोते थे… लेकिन वह कमरा ख़ाली था। जी, मैंने कहीं पढ़ा था कि बड़े होने का मतलब है कि अगर आप आधी रात को जाग जाएँ और कितना ही क्यों न चीख़ें-चिल्लाएँ, दूसरे कमरे से कोई नहीं आएगा। वह हमेशा ख़ाली रहेगा। देखिए, उस रात के बाद मैं कितनी बड़ी हो गई हूँ!

लेकिन एक बात मुझे अभी तक समझ में नहीं आती। भूचाल या बमबारी की ख़बरें अख़बारों में छपती हैं। दूसरे दिन सबको पता चल जाता है कि जहाँ बच्चों का स्कूल था, वहाँ खण्डहर हैं; जहाँ खण्डहर थे, वहाँ उड़ती धूल। लेकिन जब लोगों के साथ ऐसा होता है, तो किसी को कोई ख़बर नहीं होती… उस रात के बाद दूसरे दिन मैं सारे शहर में अकेली घूमती रही और किसी ने मेरी तरफ़ देखा भी नहीं… जब मैं पहली बार इस पार्क में आयी थी, इसी बेंच पर बैठी थी, जिस पर आप बैठे हैं। और जी हाँ, उस दिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि मैं उसी गिरजे के सामने बैठी हूँ, जहाँ मेरा विवाह हुआ था। तब सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी कि हमारी घोड़ा-गाड़ी सीधे गिरजे के सामने आ सके। हम दोनों पैदल चलकर यहाँ आए थे…

आप सुन रहे हैं, ओर्गन पर संगीत? देखिए, उन्होंने दरवाज़े खोल दिए हैं। संगीत की आवाज़ यहाँ तक आती है। इसे सुनते ही मुझे पता चल जाता है कि उन्होंने एक-दूसरे को चूमा है, अँगूठियों की अदला-बदली की है। बस, अब थोड़ी-सी देर और है— वे अब बाहर आनेवाले हैं। लोगों में अब इतना चैन कहाँ कि शान्ति से खड़े रहें, अगर आप जाकर देखना चाहें, तो निश्चिन्त होकर चले जाएँ। मैं तो यहाँ बैठी ही हूँ। आपके बच्चे को देखती रहूँगी। क्या कहा आपने? जी हाँ, शाम होने तक यहीं रहती हूँ। फिर यहाँ सर्दी हो जाती है। दिन-भर मैं यह देखती रहती हूँ कि धूप का टुकड़ा किस बेंच पर है, उसी बेंच पर जाकर बैठ जाती हूँ। पार्क का कोई ऐसा कोना नहीं, जहाँ मैं घड़ी-आधा घड़ी नहीं बैठती। लेकिन यह बेंच मुझे सबसे अच्छी लगती है। एक तो इस पर पत्ते नहीं झरते और दूसरे… अरे, आप जा रहे हैं?

Book by Nirmal Verma:

निर्मल वर्मा
निर्मल वर्मा (३ अप्रैल १९२९- २५ अक्तूबर २००५) हिन्दी के आधुनिक कथाकारों में एक मूर्धन्य कथाकार और पत्रकार थे। शिमला में जन्मे निर्मल वर्मा को मूर्तिदेवी पुरस्कार (१९९५), साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९८५) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। परिंदे (१९५८) से प्रसिद्धि पाने वाले निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ समझी जाती हैं।