[1]
तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर के अर्ध भाग पर
लिखूँगा… मैं एक अपूर्ण कविता….
संसार जानेगा उसे अप्रत्याशित कविता…
अधूरे प्रेम की कसक के गर्भ से निकलेगी
…अतृप्त कविता।
सारा ब्रह्मांड केवल एक नेत्र के अनंत में
समा जाऐगा….
ललाट की आधी सिलवटें…
माँ गंगा की पवित्र धारा की मनोरम प्रवाह बनेंगीं।
मध्य मस्तक छोटी-सी बिन्दी
पर्याय होगी ‘ब्लैक होल’ के मुख्य द्वार का,
मस्तक के अर्ध भाग के विश्रृंखल केश
अंश बन जाऐंगे विशालकाय छत्र के,
जो सोख लेंगे संसार की हर विपदा
और दिव्यता के तेज-से सुनहरे प्रकाश से सराबोर रहेंगे
मैं अपूर्ण प्रेम की पीड़ा में स्वंय को
अभिशप्त कर, दारूण हृदय से
बचे हुऐ तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर के अर्ध भाग
को छोड़ दूँगा
एक प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर
दीवार और परदों की ओट से छिपाकर
मैं अपनी चेतना खो दूँगा!
[2]
भविष्य के आने वाले अनंत काल तक
हर बार, खुदाई में निकलेंगे
तुम्हारे अर्ध भाग पर अंकित कविता के अवशेष
और प्रश्नवाचक चिह्न पर
युगों-युगों तक की जाएंगी कविताएँ
अपूर्ण कविता को सम्पूर्ण करने के लिए
कभी अवसाद में
कभी प्रेम में
कभी वासना से लिप्त
कभी मौन स्तब्ध…