रामकुमार सिंह और सत्यांशु सिंह की यह किताब ‘आइडिया से परदे तक’ सिनेमा के एक सहयोगी पेशेवर के रूप में फ़िल्म-लेखक के काम-काज का सिलसिलेवार वृत्तान्त प्रस्तुत करती है। फ़िल्म का अपना तौर-तरीक़ा है, जिसके दायरे में रहकर ही फ़िल्म-लेखक को काम करना पड़ता है। इसलिए एक हद तक अपनी स्वायत्त भूमिका रखने के बावजूद उसको अपना काम करते हुए निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, कैमरा-निर्देशक आदि अनेक सहयोगी पेशेवरों के साथ संगति का ख़याल रखना पड़ता है। ज़ाहिर है, फ़िल्म-लेखन जिस हद तक कला है, उसी हद तक शिल्प और तकनीक भी। एक सफल फ़िल्म लेखक बनने के लिए जितनी ज़रूरत प्रतिभा की है, उतनी ही परिश्रम, कौशल, अनुशासन और समन्वय की। सबसे लोकप्रिय कला के रूप में अपनी जगह बना चुका सिनेमा आज एक महत्त्वपूर्ण इंडस्ट्री भी है जो लाखों-लाख युवाओं के सपनों का केन्द्र बन चुकी है। ऐसे में फ़िल्म-लेखन की दिशा में कदम बढ़ाने वालों के लिए यह किताब एक अपरिहार्य हैण्डबुक की तरह है। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, प्रस्तुत है साभार किताब का एक अंश—
यह किताब क्या है, क्यों है?
I could be just a writer very easily. I am not a writer. I am a screenwriter, which is half a film maker. But it is not an art form. Because screenplays are not works of art. They are invitations to others to collaborate on a work of art.
—Paul Schrader
ज़रा सोचिए कि आप एक आर्किटेक्ट हैं। आपमें प्रतिभा और जुनून है। आप मेहनती भी हैं। कई साल की तमन्ना है कि आप एक पुल बनाएँ। इस पुल की छवि आपके दिमाग़ में एकदम साफ़ है। आपको पूरा भरोसा है कि जब यह पुल बन जाएगा तो इसे तकनीक और कला की ज़बरदस्त मिसाल माना जाएगा। आप यह भी जानते हैं कि यह पुल हमेशा के लिए शहर का लैण्डमार्क बन जाएगा और इस पुल के लिए आप याद रखे जाएँगे।
अब सोचिए। अगर आप पेंटर होते तो कैनवस पर रंग बिखेरकर अपनी कल्पना को साकार कर सकते थे। आप संगीतकार होते तो हाथ में गिटार लेकर ऐसी संगीत-रचना तैयार करते, जो हमेशा के लिए महान हो जाती। कवि होते तो काग़ज़-क़लम उठाते, अपने ख़यालों को एक कविता बनाकर लिख देते। वो कविता भी महान कविता की श्रेणी में जा सकती थी। समस्या यह है कि आप तो तीनों ही नहीं हैं। आप तो एक आर्किटेक्ट हैं। कविता, संगीत या पेंटिंग नहीं, पुल बनाना चाहते हैं। ये पुल आप अपने घर की छत पर तो नहीं बनाएँगे। सबसे पहले तो यह हो कि सरकार आपको उस पुल के लिए अधिकृत करे। फिर जगह चुननी होगी। बहुत सारे पैसों की ज़रूरत होगी। आपको ज़रूरी क़ानूनी औपचारिकताएँ पूरी करनी पड़ेंगी। और फिर पुल आप अकेले नहीं बनाएँगे। आप एक ब्लू-प्रिंट बनाएँगे, जिस पर सैकड़ों लोग अलग-अलग महकमों को सम्भालते हुए काम करेंगे। कोई बिजली वाला होगा, कोई कंक्रीट बिछा रहा होगा, कोई मेटल का काम देख रहा होगा। हर विभाग का एक मुखिया होगा। वो सब उस पर मिल-जुलकर काम करेंगे। आपको यह भी देखना होगा कि आपका सपना एक तय बजट में पूरा हो पाए। तकनीकी रूप से उसमें कोई कमी नहीं रह जाए। इन सबके बीच आपको यह कोशिश करनी है कि आपकी कला और रचनात्मकता से बना वह पुल जनता के काम भी आए।
अगर आप इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए काम नहीं कर सकते हैं, इन सब चीज़ों का समन्वय नहीं कर पा रहे हैं तो क्या आपको नहीं लगता कि आप ग़लत पेशे में हैं?
इसी तरह सिनेमा है—बहुत महँगा माध्यम और सामूहिक सहयोग से तैयार की गई अभिव्यक्ति। उसमें लेखक और निर्देशक की अपनी सोच तब तक मूर्त नहीं होती, जब तक बहुत सारे लोग आपके साथ न जुड़ें। आप अकेले सारा काम करके, अपने पैसे लगाकर फ़िल्म नहीं बनाएँगे। बतौर लेखक आप एक ब्लू-प्रिंट बनाएँगे, जिस पर सैकड़ों लोग इकट्ठा होकर काम करने को राज़ी होंगे। तब जाकर आप अपने सपने को साकार होते हुए देख पाएँगे।
इसलिए सिनेमा का अपना व्याकरण है, उसके नियम हैं। एक लेखक के नाते आपको उस व्याकरण को मानते हुए अपनी बात कहनी होती है। अगर आप यह नहीं कर सकते हैं, तो शायद आपको फ़िल्म लेखन के बजाय किसी और काम में ध्यान देना चाहिए। साहित्य की दुनिया के कई बड़े लेखक सिनेमा में आए, लेकिन वहाँ वे कामयाब नहीं हो पाए। इसी तरह साहित्य से कई साधारण लेखक सिनेमा में आए और वे कामयाब हो गए। फ़िल्म का लेखक बनने के लिए ज़रूरी है कि आप फ़िल्म के क्राफ़्ट को सीखें, क्योंकि फ़िल्म का लेखन दूसरे क़िस्म के लेखन से कई मायनों में अलग होता है।
पहली बात तो यह है कि फ़िल्म के लेखक का अपने पाठक के साथ सीधा कोई संवाद नहीं होता, जिस तरह का संवाद उपन्यास या कहानी के लेखक का होता है। फ़िल्म के लेखक को चुनिन्दा लोग पढ़ते हैं, सिर्फ़ वो लोग जो उस फ़िल्म में काम कर रहे होते हैं। यदि आपको पाठक चाहिए, उनसे सीधा संवाद चाहिए, तो फिर आप कहानी लिखिए, उपन्यास लिखिए या ब्लॉग लिखिए। फ़िल्म के लेखक के लिए यह सम्भव नहीं है।
दूसरी बात, फ़िल्म लेखक के तौर पर आप जो लिखते हैं, जिसे हम स्क्रीनप्ले कहते हैं, वह एक तकनीकी दस्तावेज़ है, जो एक निर्माता को प्रेरित करता है कि वह उसमें निवेश करे, बहुत सारे लोगों को एकत्र करे और एक फ़िल्म का निर्माण करे।
पटकथा को निर्देशक पढ़ता है, एक्टर पढ़ता है, सिनेमाटोग्राफ़र पढ़ता है और प्रोडक्शन का आदमी भी पढ़ता है। पटकथा पढ़कर ही तय होता है कि किसी फ़िल्म को बनाने में कितना पैसा ख़र्च होने वाला है। लिहाज़ा यह बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है कि पटकथा कलात्मक रूप से मज़बूत हो लेकिन साथ ही तकनीकी रूप से भी उतनी ही सही हो क्योंकि इसी का अनुसरण करते हुए लगभग सौ-दो सौ लोग उस फ़िल्म को पूरा करते हैं। जब इतने सारे लोग एक साथ मिलकर उस पर काम करते हैं तो यह एक वर्क ऑव आर्ट हो जाता है।
आप फ़िल्म लिख रहे हैं तो आपको अपना काम तो आना ही चाहिए, साथ ही दूसरे काम भी आने चाहिए। आप लिखते समय अभिनय भी कर रहे होते हैं, सम्पादन भी, और कुछ-कुछ निर्देशन भी। आप कॉस्ट्यूम और मेकअप की डिटेल्स भी कभी लिखते हैं और कभी आप अपने कैमरा-निर्देशक को भी प्रेरित करते हैं कि वह कैसे शूट करे। आपको साउण्ड की जानकारी होनी चाहिए। पटकथा पढ़ते समय आपकी यह जानकारी दिखनी और सुनायी पड़नी चाहिए। लिहाज़ा फ़िल्म के लेखक को उपन्यास के लेखक से कहीं अधिक सजग और सचेत रहना पड़ता है। वहाँ सिर्फ़ कहानी का प्रवाह ही नहीं, हर चीज़ महत्त्वपूर्ण होती है।
इसका मतलब यह भी नहीं है कि फ़िल्म के हर विभाग के सारे निर्णय आप लेंगे। आप अपनी पटकथा के हर दृश्य में नहीं लिखेंगे कि यहाँ म्यूज़िक बजेगा और यहाँ बैकग्राउण्ड में क्या परदे होंगे या कैमरा एंगल क्या होगा। यानी आप एक मज़बूत आधार तो बनाएँगे, जिस पर एक अच्छी फ़िल्म बने लेकिन हर विभाग को माइक्रो-मैनेज आपको नहीं करना है।
साथ ही, आपको सिनेमा के कारोबार के बारे में पता होना चाहिए। आपके पास कहानी के दस आइडिया हैं, लेकिन आपको पता होना चाहिए कि किस आइडिया पर फ़िल्म काम कर सकती है। आपने फ़िल्म लिखी और वो बन ही न पाए तो क्या फ़ायदा?
सिनेमा या मोशन पिक्चर का समय के साथ भी विलक्षण रिश्ता है। यह सार्वकालिक यानी हमेशा रहने वाला है। क़िस्सागोई की किसी भी शैली का समय के साथ इस तरह का रिश्ता नहीं है। उपन्यास के पाठक के पास आज़ादी होती है कि वह उसे कैसे और कब पढ़ता है। हरेक पाठक की अपनी गति होती है कि वह उसे एक रात में पढ़ ले, दस दिन लगाए या एक महीने में पढ़े। एक बार फिर पीछे के दो पेज पलटकर पढ़ ले। नाटक को लीजिए। हर बार नाटक के समय में थोड़ा-बहुत बदलाव हो ही जाता है। कलाकार उसमें अपना समय बदल सकता है। कभी एंट्री का तो कभी संवाद का। लाइटिंग बदल जाती है। हर शो में इम्प्रोवाइज़ेशन होता है। यानी नाटक के साथ यह आज़ादी जुड़ी है कि वह अपने हर शो में अलग टाइमलाइन पर चल पाए।
फ़िल्म लेखक की सबसे बड़ी पूँजी ही समय है। पटकथा में उसे बहुत सोच-समझकर निवेश करना होता है। दृश्यों में हर मिनट का ख़याल करना होता है। आपको फ़िल्म लिखते समय ध्यान रखना है कि पहले पाँच मिनट में क्या कहना है, अगले दस मिनट में क्या कहना है। लिखने में आपने भले ही पाँच साल लगा दिए हैं, लेकिन आपने जो लिखा है, उसे दो घण्टे में ही कहा जाना है। सिनेमा रिकॉर्डेड संगीत की तरह है। जैसे मान लीजिए, ए.आर. रहमान ने ‘तू ही तू सतरंगी रे’ सात मिनट दस सेकण्ड का ट्रैक बनाया है तो पचास साल बाद भी हम उसे उतने ही समय में सुनेंगे। अल्फ़्रेड हिचकॉक ने ‘रोप’ बनायी। 80 मिनट की फ़िल्म है। 1948 में बनी थी। आज भी हम उसे 80 मिनट में ही देखते हैं। कई बार हम किसी कमज़ोर फ़िल्म के लिए कह देते हैं कि उसमें दस-बारह मिनट का घालमेल था। जो बात फ़िल्म में पन्द्रहवें मिनट पर आ जानी थी, वह बाईसवें मिनट पर आयी। यह सात मिनट गिनने में लेखक ने ग़लती कर दी। आप लम्बे समय से किसी पटकथा पर काम कर रहे हैं, उसमें इतना सा हेर-फेर हो सकता है। मगर दर्शक यह क़बूल नहीं करता। गणित अजीब है लेकिन फ़िल्म के लेखक को इससे रूबरू होना पड़ता है। इसलिए यह समझिए कि पटकथा के हर पेज पर आपको कितना दिमाग़ लगाना है। फ़िल्म में हर पाँच से दस मिनट के अन्तराल पर क्या हो रहा है, यह आपको बहुत सावधानी से देखना है। यही वो बात है जो फ़िल्म लेखन को क़िस्सागोई का सबसे मुश्किल रूप बनाती है।
उपन्यास की साइज़ देखिए। आमतौर पर दो सौ-तीन सौ पेज का होता है लेकिन सात सौ-आठ सौ पेज का भी उपन्यास होता है। लेकिन पटकथा अगर 120 पेज की है तो कहा जाता है कि थोड़ी बड़ी है। अगर आपने 150 पेज की पटकथा लिख दी है तो ख़तरा यह है कि कोई उसे पढ़ेगा ही नहीं। आपके सामने यह चुनौती है कि आप कम-से-कम शब्दों में अपनी ज़्यादा-से-ज़्यादा बात कह पाएँ।
सिनेमा, थिएटर और उपन्यास की भौगोलिक अपील में अन्तर है। फ़िल्म कोई भी देख सकता है। आप पढ़े-लिखे नहीं हैं तो भी फ़िल्म का आनन्द ले सकते हैं, लेकिन उपन्यास पढ़ने के लिए आपको शिक्षित होना ज़रूरी है। उपन्यास ख़रीदने वाला पाठक किताब को लेकर बुक-शेल्फ़ में रखता है। अपनी सुविधा से कोई समय तय कर उसे पढ़ता है। सिनेमा का दर्शक दोस्तों के साथ प्रोग्राम बनाता है। हर आदमी दो सौ रुपए ख़र्च करता है। दो-ढाई घण्टे का कमिटमेंट भी करता है कि अब फ़िल्म देखनी है। वह पन्द्रह मिनट में आपको जज भी करने लगता है कि मज़ा आ रहा है कि नहीं। अगर यह आपकी फ़िल्म का शुरुआती दर्शक है तो आपका दूत है। यह बाहर जाकर आपकी फ़िल्म के बारे में अच्छा या बुरा कहेगा। आजकल सोशल मीडिया ने दर्शकों का इतना लोकतन्त्रीकरण कर दिया है कि बॉक्स ऑफ़िस पर बड़ी ओपनिंग लेने वाली फ़िल्में अचानक अगले दिन से बैठना शुरू हो जाती हैं। ऐसे ही कमज़ोर ओपनिंग के बावजूद अगले दिनों में फ़िल्मों ने कारोबार करना शुरू किया क्योंकि उनका लेखन और कंटेंट बेहतर था। ‘क्वीन’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘चक दे इंडिया’ इसके उदाहरण हैं। फ़िल्म का ‘वर्ड ऑव माउथ’ कैसा रहता है, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
सिनेमा और दूसरी विधाओं की डेमोग्राफ़िक अपील में बहुत अन्तर है। लिखते समय आपको यह ध्यान रखना है कि आपकी आवाज़, आपकी पुकार में एक यूनिवर्सल अपील होनी चाहिए। ब्राजील में बैठे आपके चाचा और बोकारो में बैठी एक बारह साल की लड़की भी आपकी फ़िल्म देखकर हँसे और रोए। पचास साल बाद जापान का एक स्कूली बच्चा भी आपकी फ़िल्म से भावनात्मक तौर पर जुड़ जाए। यह सिनेमा की सार्वभौमिक भाषा (Universal Language) है। पटकथा में आपको वो इमोशन पकड़कर चलना होता है।
एक और महत्त्वपूर्ण बात। वह है ऑथरशिप। इसकी चर्चा ऊपर कर चुके हैं कि लेखक के तौर पर अगर आप अपने विचार, धारणाओं में रत्ती-भर भी अन्तर नहीं सोचते, आप अपने रचनात्मक व्यवहार में दूसरों की बातों को अहमियत नहीं देते हैं तो फिर आपको फ़िल्म लेखक बनने में ज़्यादा चुनौतियों का सामना करना होगा। जिस यातना से गुज़रकर लेखक फ़िल्म लिखता है, उसके बाद वह निर्देशक की हो जाती है। निर्माता उसे अपनी फ़िल्म कहता है। सम्पादक उसे अपनी फ़िल्म कहता है। अभिनेता उसे अपनी फ़िल्म कहते हैं।
इसके विपरीत एक उपन्यास के लेखक को देखिए। भले ही प्रकाशक ने उसे छापा है लेकिन उपन्यास पर मालिकाना हक़ हमेशा लेखक का ही रहता है। इसलिए मानकर चलिए कि फ़िल्म लेखन कहीं अधिक कठिन और कीर्तिविहीन कार्य है। लिहाज़ा आप अपना काम करके अपनी ऑथरशिप निर्देशक को सौंप सकते हैं, उस पर भरोसा कर सकते हैं तो आप फ़िल्म लेखन में आइए। वरना आपकी हालत उस आर्किटेक्ट की तरह होगी जिसके पास एक ख़ूबसूरत और ऐतिहासिक पुल बनाने का विचार, नक़्शा और क़ाबिलियत है, लेकिन वह उसको मूर्त रूप देने में दूसरे लोगों पर भरोसा नहीं कर सकता। वो पुल कभी बनेगा नहीं।
ये सब पढ़कर आपको ऐसा लग रहा होगा कि जिगर मुरादाबादी ने यह शेर शायद फ़िल्म लेखकों के लिए ही कहा हो—
यह इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजै,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
मुमकिन है, इस तरह की कड़वी बात हम किताब के अन्त में करते। एकदम शुरू में आपको यह बात बुरी लग सकती है। लेकिन इसे आप समझेंगे नहीं तो फ़िल्म लेखक के रूप में आपका जीवन मुश्किल हो जाएगा।
लेखन के सारे अनुशासन और यातना से गुज़रकर लेखक पटकथा किसी और को दे देता है। वह उसका मालिक नहीं होता। निर्देशक आ जाता है, दूसरे बहुत लोग आ जाते हैं। अपना अभिमत रखते हैं। लेखक की वहाँ ज़रूरत ही नहीं होती। तो सवाल आता है कि यह आप कैसे कर सकते हैं? कई महीने या साल लगाकर, ख़ून-पसीना देकर एक पटकथा तैयार करते हैं। अपनी कल्पना, इमोशन डालकर उसे पूरा करते हैं। फिर दूसरे हाथों में देकर उसे कैसे छोड़ दें?
इसके लिए हमें अपनी माँओं से सीखना चाहिए। उनके बड़प्पन, उनकी महानता, उनके त्याग को समझिए। माँ नौ महीने तक अपने गर्भ में बच्चे को पालती है। प्रजनन-काल की पूरी यातना वह अकेले बर्दाश्त करती है। बच्चे के प्रसव की यातना वह सहती है। उसे पाल-पोसकर बड़ा करती है। बच्चा अपने बाप के सरनेम से जाना जाता है। वह दादी का, बुआ का, सबका बच्चा हो जाता है। कभी कोई टीचर बच्चे को प्रभावित कर गया, बच्चे पर उसका भी असर होता है। यानी हमेशा बच्चा वैसा ही नहीं होता है जैसा माँ चाहती है। एक समय के बाद माँ भी अपने बच्चे को छोड़ती है कि बच्चे को अब अपनी ज़िन्दगी जीनी चाहिए। यह उम्मीद करती है कि वह अच्छी ही ज़िन्दगी जिएगा। माँ अगर यह ज़िद करके बैठ जाए कि बच्चा वैसे ही रहेगा जैसे मैं चाहती हूँ, क्योंकि इसको पैदा मैंने किया है तो यह कभी सम्भव हो नहीं पाएगा।
फ़िल्म लेखन एक रचनात्मक काम होने के साथ ही क्राफ़्ट भी है। इसलिए इसे सीखना ज़रूरी है। आप चाहे ख़ुद दुनिया-भर का सिनेमा देखते हुए इसे सीखें, किसी फ़िल्म इंस्टिट्यूट में एडमिशन लेकर सीखें, या किताब पढ़कर सीखें। यह किताब एक ऐसी ही व्यावहारिक कोशिश है कि अगर आप किताब पढ़कर फ़िल्म लिखना सीखना चाहते हैं तो यह आपके लिए मददगार साबित हो।
इस किताब को आप कैसे पढ़ें?
हम बहुत ही त्वरित और तात्कालिक मानवीय अभिव्यक्ति को लेते हैं, जैसे संगीत, नृत्य या खेल है। खेल में क्रिकेट को लीजिए। बल्लेबाज़ मैदान में उतरता है, तो उस दिन पिच की हालत, गेंदबाज़ की गेंद को देखकर वह तय करता है कि उसे कैसा शॉट खेलना है। फ़ील्डर की जगह देखता है और अपना बल्ला घुमाता है।
संगीतकार पियानो पर बैठता है। कुछ रचने की कोशिश करता है। उसे कोई धुन सूझती है और वो उसे बनाता है। नर्तक मंच पर जाता है। नाचते हुए कुछ इम्प्रोवाइज़ करके अपनी प्रस्तुति देता है और लोग वाहवाही करते हैं। लेकिन खिलाड़ी कोई एक दिन में नहीं बनता। संगीतकार और नर्तक भी इसी तरह कठिन मेहनत और प्रशिक्षण से बनते हैं। इन तात्कालिक अभिव्यक्तियों के पीछे भी कितने सालों की मेहनत और प्रशिक्षण होता है। इसलिए फ़िल्म लेखन जैसी तकनीकी और सुनियोजित क्राफ़्ट वाली भाषा के लिए तो आपको प्रशिक्षण की ज़रूरत होगी ही। हम चाहते हैं कि फ़िल्म लेखन भी आप उसी मेहनत से सीखें।
लेकिन ये भी याद रखिए कि यदि एक खिलाड़ी को स्टेट ड्राइव मारना सिखाया गया है तो ज़रूरी नहीं उसने जैसा सीखा, वैसे ही मारेगा। युवराज की अपनी स्टाइल है और धोनी की अपनी। सहवाग अपनी आँखों और हाथों के समन्वय पर खेल लेगा।
फ़िल्म का लेखन भी ऐसा ही है। इसलिए इस किताब को आप नियम की तरह मत लीजिए। अगर आप नियमों में ज़्यादा फँस जाएँगे तो हो सकता है, आपको शुरू में ही किताब से अरुचि हो जाए। ज़रूरी ये भी नहीं कि इन रूल्स को मानते हुए आप महान फ़िल्म लिख देंगे। इसलिए इस किताब का रूल्स की तरह नहीं, टूल्स की तरह इस्तेमाल कीजिए। समझिए कि आपके पास एक टूल बॉक्स है। उसमें बहुत सारे औज़ार हैं। आपको यात्रा पर निकलना है। कोई भी टूल आप फेंक नहीं सकते। पता नहीं, कब कौन सा टूल काम आ जाए और कोई भी टूल इतना बड़ा नहीं है कि आपने उसे अगर इस्तेमाल नहीं किया तो आपकी पटकथा पूरी नहीं हो सकती।
पिछले क़रीब 120 सालों में दुनिया-भर के महान फ़िल्मकारों ने सिनेमा के माध्यम को जैसे इस्तेमाल किया है, उससे हमने जो भी कुछ सीखा है, उसमें से जितना कुछ आप तक पहुँचा पाएँ, यह किताब उसी की एक कोशिश है। इस किताब को हमने एक वर्कबुक की तरह डिज़ाइन किया है। एक फ़िल्म को लिखते हुए लेखक जिन चरणों से गुज़रता है, उसी क्रम में इस किताब में चलने की कोशिश हम करेंगे। हमारी कोशिश है कि यह टूल बॉक्स लेकर आप फ़िल्म लेखक के रूप में अपनी यात्रा शुरू करें।
फ़िल्म लेखन का पहला चरण है आइडिएशन, यानी विचार—मोटे तौर पर जान लेना कि आप क्या या कैसी कहानी लिखना चाहते हैं। दूसरा चरण है रिसर्च यानी शोध। तीसरा, कैरेक्टर डेवलपमेंट यानी चरित्रों का विकास। चौथा स्टेज है स्टोरी बिल्डिंग यानी कथा-निर्माण। कई बार दूसरे, तीसरे और चौथे चरण एक साथ भी चलते हैं। पाँचवाँ चरण है, स्ट्रक्चर या ढाँचा, मतलब कितने सीन में आप कहानी कहेंगे। छठा चरण है पटकथा का पहला ड्राफ़्ट और सातवाँ है पटकथा का पुनर्लेखन। कोशिश की गई है कि आप हर चरण से गुज़रते हुए एक लेखक की यात्रा को महसूस कर सकें और उसी क्रम में अपनी पटकथा पर काम कर सकें।
आइए, शुरुआत करते हैं।
प्रेमचंद की जीवनी 'क़लम का सिपाही' से किताब अंश