देखना, सोचना, समझना
यही मैंने सीखा है
यही मेरे मनुष्य होने की विशेषता है
पर कई बार देखते हुए सोचना कठिन होता है
और सोचते हुए समझना भी उतना ही कठिन

सोचती हूँ एक फूल को कैसे समझा जाए
क्या यह सम्भव है फूल में बदले बिना
कैसे महसूस किया जाए उसकी पंखुरियों का झरना एक-एक कर
मैं अगर झरी हुई पत्तियों वाला एक पेड़ हो पाती
तो समझ पाती उसका लुटा हुआ वैभव
देखती ख़ुद उसकी वीरानी को

देखने, सोचने, समझने में लौटना
फिर उनसे दूर जाने की तरह है
मैं बाहर हो जाती हूँ फूल से और पेड़ से
सोचती हूँ उसके रंग, उनकी क़िस्मों के बारे में
बसंत के बारे में—जब पंखुरियाँ फिर फूल तक लौट आएँगी
कोमल हो जाएगा पेड़ अपने हरे पत्तों में
फिर मैं जागूँगी अपनी निश्छलता में
और प्रेम करूँगी उतना
जितना वह है मेरे भीतर।

अनीता वर्मा की कविता 'स्त्री का चेहरा'

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