ट्रेफिक लाइट पर कार रोकी तो, मटमैले कपड़े पहने बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ा, गुब्बारे बेचने वाला शीशे पर हाथ मारकार इशारा करने लगा।
मैंने शीशा नीचे करते हुए कहा, “नहीं चाहिए..”
वो जिद पर अड़ा रहा और हाथ में गुब्बारे लिए खड़ा रहा।
“बच्चे अब बड़े हो गए हैं, गुब्बारों से नहीं खेलते”, कहते हुए मैंने उसे टालने की नाकाम कोशिश की।
जब वो नहीं हटा तो मैंने सोचा चलो ले ही लेता हूँ।
“तुम मानोगे तो नहीं, चलो दे दो, कितने पैसे देने हैं?”
“साहब, बीस रुपए!”
“क्या.. बीस रुपए, अरे दो रुपये के गुब्बारे को बीस रुपए में बेच रहे हो, नहीं लेना!”, कहते हुए मैं खिड़की का शीशा ऊपर करने लगा।
“साहब ले लीजिए ना…”
…
“गुब्बारों में भरकर अपनी साँसे बेच रहा हूँ, क्या साँसों की इतनी सी भी कीमत नहीं?”
…
” साँसे बेच रहा हूँ…”
इतनी देर में बत्ती हरी हो चुकी थी, पीछे वाली कार के हॉर्न ने मुझे कार आगे बढ़ाने पर मजबूर कर दिया। लेकिन सारे रास्ते में उसकी कही बात कानों में गूंजती रही…
साँसें बेच रहा हूँ साहब, क्या साँसों की इतनी सी भी कीमत नहीं!”