एक हादसा हुआ था
पर चटपटी खबर बन गयी
हर छोटे बड़े अख़बारों की
मैं सुर्ख़ियाँ बन गयी
हादसे से किसी को
नहीं सरोकार
क्या थी मेरी ग़लती
सब थे जानने को बेकरार
क्या था मैंने पहना
अकेली थी या
संग था कोई अपना?
कपड़े कितने बड़े मेरे थे
क्या दिखा, क्या छुपा रहे थे
क्या उभार मेरे किसी को
उकसा रहे थे?
क्यूँ रात को अकेली
घर जा रही थी
क्या पी कर भी
कहीं से आ रही थी?
चरित्र पर मेरे सब
अँगुली उठा रहे थे
सवालों के पत्थर
उछाल रहे थे
सब कुछ बन तमाशा
मौन बन सोच रही थी
कैसे आदिवासियों के
क़स्बों में
इन्हीं छोटे कपड़ों में
महफूज़ रहती हैं लड़कियाँ
रात को सुनसान सड़कों पर भी
चलती हैं लड़कियाँ
पर फिर भी
कोई तमाशा कोई ख़बर
नहीं बनती है लड़कियाँ
सोच के फ़र्क़ में
शायद पलती हैं
ये लड़कियाँ…

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अनुपमा झा
कविताएं नहीं लिखती ।अंतस के भावों, कल्पनाओं को बस शब्दों में पिरोने की कोशिश मात्र करती हूँ।

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