हर काल में
मौन को किया गया
परिभाषित
अपने तरीक़े से
अपनी सुविधानुसार।
मौन को कभी
ओढ़ा दिया गया
लाज का घूँघट,
कभी पहना दिया
स्वीकृति का जामा।
पलटकर बोलने वाली
स्त्रियों को दी गयी
उपाधि बेहया की,
और बचा लिया
पुरुषों ने अपने
पौरुषेय अहंकार को।
स्त्रियों का आर्तनाद
प्रतिध्वनि बन भी
वापस नहीं लौटता होगा
शायद!
मौन रहीं स्त्रियाँ
तभी तो बोल पाया
पुरुष भी।
लिख दिए पुरुषों ने
मोटे-मोटे ग्रंथ
स्त्रियों के रूप, रंग
चारित्रिक विशेषताओं के ऊपर।
मौन को ख़ूबसूरत कह
बना दिया उसे
नारी का अधर शृंगार
और लगा दी मुहर
‘मौनं स्वीकारं लक्षणं’
पर
जब स्त्री होने लगी वाचाल
करने लगी, शब्द, भावों से
अपना शृंगार,
तो सभ्यताओं के किनारों पर
स्त्रियों के शब्द-सम्भाव्य पर
फिर रचे जाने लगे, गीत।
कहीं लिखा गया—
‘स्मितेन भावेन च लज्जया भिया
पराङ्मुखैरर्द्धकटाक्षवीक्षणैः॥
वचोभिरीर्ष्याकलहेन लीलया
समस्तभावैः खलु बन्धनं स्त्रियः॥’*
परंतु स्त्रियाँ
चख चुकी थी आस्वादन
शब्दों की अभिव्यंजनाओं का,
और कर चुकी थीं निरूपण
अंतस के भावों का।
फिर लिखा स्त्रियों ने भी
‘मौनं कायरं लक्षणं’
और शायद तभी से
‘मौन’
स्वीकार, लज्जा, कायरता
तीनों रूपों में
भटकता फिर रहा
ढूँढता, अपना वजूद…
*संस्कृत अर्थ: मन्द-मन्द मुस्काना, लजाना, भयभीत होना, मुँह फेर लेना, तिरछी नज़र से देखना, मीठी-मीठी बातें करना, ईर्ष्या करना, कलह करना और अनेक तरह के हाव-भाव दिखाना—ये सब स्त्रियों में पुरुषों को बंधन में फँसाने के लिए ही होते हैं, इसमें संदेह नहीं।
अनुपमा झा की कविता 'अजब ग़ज़ब औरतें'