बारिश
थम चुकी है
फिर भी हर शजर का दामन
भीगा-भीगा सा है

धूप ने बहुत
गुज़ारिश की है
तभी
आसमान ने पिघलकर
बूँद-बूँद बारिश की है

नदियों का किनारा
देखा है तुमने
किस कदर जल रही होती है रेत
और फिर बादल बरसकर
कितनी ठण्डक दे जाता है

मैं बारिश की दुआ
नहीं करता
कच्चे मकान की दिवारें
भसक जाती हैं तेज बारिश में

बारिश को कहता हूँ
ख़ामोश रहो
लेकिन हर बार
पुराने किस्से छेड़ देती है

मैं डरता हूँ
ये बारिश आख़िरी न हो जाए
कश्तियाँ गल जाती हैं
काग़ज़ की अक्सर

अपने हिस्से की बारिश
आँखों में समेटकर
तुम्हारे शहर में
ज़िन्दा रहा
सुना था आग बहुत होती थी

तुमने खिड़कियाँ खोलकर
कभी नहीं देखा
कितनी मुश्किलें लेकर आता है
सावन हर बार
—–

रजनीश

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रजनीश गुरू
किस्से कहानियां और कविताएं पढ़ते-पढ़ते .. कई बार हम अनंत यात्राओं पर निकल जाते हैं .. लिखावट की तमाम अशुद्धियों के साथ मेरी कोशिश है कि दो कदम आपके साथ चल सकूं !!

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