ज़रूरी नहीं
सब गोरी स्त्री सुन्दर हों
कुछ काली भी होती हैं
मन की मिट्टी पर
कल्पना के कपास उगाती हैं,
और
उड़ा देती हैं
अपने शब्दों को
फाहे में सम्भाल
आसमाँ की ओर
कभी
सम्भाल लेता है आसमाँ
उन वजूदों को
कभी
बरस भी जाता है
आदतन
और फिर
दब जाती हैं
हो जाती हैं भारी
वो सुन्दर, काली स्त्री…

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अनुपमा झा
कविताएं नहीं लिखती ।अंतस के भावों, कल्पनाओं को बस शब्दों में पिरोने की कोशिश मात्र करती हूँ।

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