कविता खोजने के गर्दनतोड़ कारोबार में
दिल के आकार के लाल गुब्बारों में भी तलाश की जाएगी कविता
एक दिन
कवि आएँगे सब तरह के सब जगह के
लालबत्ती चौराहे पर
जहाँ एक ना-आदमी सा आदमी, और ना-बच्चों से बच्चे
बेचेंगे दिल के आकार के लाल गुब्बारे
(जैसे आदमियों के पास इससे अच्छा खिलौना ही कोई न बचा हो!)
और कवि खोजेंगे,
चाहेंगे एक कविता
एक फ़ैसले की तरह सुनाने के लिए सभ्यता पर
कि जैसे सभ्यता में कविता ही रह गई हो एक न्यायाधीश!
कवि-एक
कहेगा, देखो बिकता है दिल
हृदयहीन इस महानगर में रहना है
मुश्किल, चलो चलें
जहाँ कोई न हो दुकानदार
कवि-दूसरा कहेगा तब
भागने से क्या होगा अब
देखो, इस गुब्बारे को—हवा में मत देखो
धुएँ में देखो इस गुब्बारे को, इस गुब्बारे में
हवा मत देखो, ज़हर देखो
और हमें यह पीना है
जीना है
कवि तीसरा और चौथा कहेगा तब एक स्वर में—
धौंक रहा यह सचमुच का दिल है
सभ्यता हमारी यह क़ातिल है
कुछ और कहेंगे जो आए होंगे क़स्बे से
मनुष्य की लालसा, दरअसल यह उड़ती है
कटु यथार्थ ने, लेकिन, डोरी थाम रखी है
तभी आएगा वह, झाँकेगा
कार के शीशे से, और कवियों के कविता परदे से
और फुँफकारेगा, ‘ले लो ले लो’
हम देखेंगे उसे, उसकी आवाज़ को न सुनते हुए,
देखते हुए उसके नीले होंठों को
और पूछते हुए, एक-दूसरे से
किस फ़िल्म में देखा था, ऐसा बलराज साहनी, ऐसी नरगिस
और बचा हुआ अन्तिम कवि
अपनी कविता की पहली पंक्ति सोचेगा
जो आज के सत्र की विसर्जन पंक्ति होगी
लालबत्ती हड़बड़ाकर हो जाएगी हरी
थड़-बड़ मच जाएगी
हर कोई भागना चाहेगा, अपने-अपने हिस्से की धरती नोचकर
अपने ही नाक की सीध में
और बीच में घिरा होगा बलराज साहनी—घिरी होगी नरगिस
और दिल के आकार के लाल गुब्बारे
हवा में सीधे खड़े देखेंगे जानेवालों का यूँ भी जाना
अन्तिम कवि सोच रहा होगा,
अपनी कविता की पहली पंक्ति
जो आज के सत्र की विसर्जन पंक्ति होगी
चारों दिशाएँ गा रही होंगी—
विसर्जित भाषा का व्यौपार स्वाहा
विसर्जित झूठों का संसार स्वाहा
विसर्जित चिन्ता के गद्दार स्वाहा
विसर्जित चिन्तन यह फलदार स्वाहा
विसर्जित मीडियोकर की मार स्वाहा
विसर्जित कवियों का दरबार स्वाहा
विसर्जित चौराहा-बाज़ार स्वाहा
विसर्जित स्कूटर और कार स्वाहा
विसर्जित अपनी हा-हाकार स्वाहा
विसर्जित उनकी जय-जयकार स्वाहा
और घनघोर विसर्जन के इस वातावरण में
अन्तिम कवि एक-एक अक्षर चुनता जा रहा होगा
अपनी कविता की पहली पंक्ति के लिए
जैसे कि तितलियाँ, या मक्खी, या मच्छर, या जैसे गुब्बारे पकड़ रहा हो हवा में।
***
साभार: किताब: ‘शोकनाच’ | कवि: आर. चेतनक्रान्ति | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
आर. चेतनक्रान्ति की कविता 'सीलमपुर की लड़कियाँ'