मानव-मस्तिष्क में जितनी बौद्धिक क्षमताएँ होती हैं, उनके बारे में कितने ही लोग समझते हैं कि ‘ध्यानावस्थित तद्गत मन’ से वह खुल जाती हैं। किंतु बात ऐसी नहीं है। मनुष्य के मन में जितनी कल्पनाएँ उठती हैं, यदि बाहरी दुनिया से कोई सम्बन्ध न हो, तो वह बिलकुल नहीं उठ सकतीं, वैसे ही जैसे कि फ़िल्म-भरा कैमरा शटर खोले बिना कुछ नहीं कर सकता। जो आदमी अंधा और बहरा है, व (वह) गूँगा भी होता है। यदि वह बचपन से ही अपनी ज्ञानेंद्रियों को खो चुका है, तो उसके मस्तिष्क की सारी क्षमता धरी रह जाती है, और वह जीवन-भर काठ का उल्लू बना रहता है। बाहरी दुनिया के दर्शन और मनन से मन की क्षमता को प्रेरणा मिलती है। क्षमता का भी महत्व है, यह मैं मानता हूँ, किंतु निरपेक्ष नहीं। हमारे महान कवियों में अश्वघोष तो घुमक्कड़ थे ही। वह साकेत (अयोध्या) में पैदा हुए, पाटलिपुत्र उनका विद्याक्षेत्र रहा और अंत में उन्होंने पुरुषपुर (पेशावर) को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। कविकुलगुरु कालिदास भी बहुत घूमे हुए थे। भारत से बाहर चाहे वह न गए हों, किंतु भारत भीतर तो अवश्य वह बहुत दूर तक पर्यटन किए हुए थे। हिमालय को ‘उत्तर दिशा में देवात्मा नगाधिराज’ उन्होंने किसी से सुनकर नहीं कहा। हिमालय को उनकी आँखों ने देखा था, इसीलिए उसकी महिमा को वह समझ पाए थे। ‘अमुं पुर: पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन’ में उन्होंने देवदार को शंकर का पुत्र मानकर दुनिया के उस सुंदरतम वृक्ष की श्री की परख की। श्वेत हिमाच्छादित हिमालय और सदाहरित तुंग-शीर्ष देवदार प्राकृतिक सौंदर्य के मानदंड हैं, जिनको कालिदास घर में बैठे नहीं जान सकते थे। रघु की दिग्विजय-यात्रा के वर्णन में कालिदास ने जिन देशों में नाम दिए हैं, उनमें से कितने ही कालिदास के देखे हुए थे, और जो देखे नहीं थे, उनका उन्होंने किसी तरह अच्छा परिज्ञान प्राप्त किया था। कालिदास की काव्य-प्रतिभा में उनके देशाटन का कम महत्व नहीं रहा होगा। वाण—जिसके बारे में कहा गया ‘वाणोच्छिष्टं जगत् सर्वं’ और जिसकी कादम्बरी की समकक्षता आज तक किसी ग्रंथ ने नहीं की—तो पूरा घुमक्कड़ था। कितने ही सालों तक नाना प्रकार के तीन दर्ज़न से अधिक कलाविदों को लिए वह भारत की परिक्रमा करता रहा। दंडी का अपने दशकुमारों की यात्राओं का वर्णन भी यही बतलाता है कि चाहे वह काँची में पल्लव-राज-सभा के रत्न रहे हों, किंतु उन्होंने सारे भारत को देखा था। इस तरह और भी संस्कृत के कितने ही चोटी के कवियों के बारे में कहा जा सकता है। दार्शनिक तो अपने विद्यार्थी जीवन में भारत की प्रदक्षिणा करके रहते थे, और उनमें कोई-कोई कुमारजीव, गुणवर्मा आदि की तरह देश-देशांतरों का चक्कर लगाते थे।
पुरानी बातें शायद भूल गई हों, इसलिए अपने वर्तमान युग के महान कवि को देख लीजिए। कवींद्र रवींद्र को केवल काव्यकर्त्ता, उपन्यासकार और नाव्य-रचयिता के रूप में ही हम नहीं पाते। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक देन का बहुत अच्छा मूल्याँकन किया था। पश्चिम की चकाचौंध से उनके पैर ज़मीन से नहीं उखड़े और न हमारे देश की रूढ़िवादिता ने उनको अकर्मण्य बनाने में सफलता पायी। भावी भारत के लिए कितनी ही बातों का कवींद्र ने मानदंड स्थापित किया। शांतिनिकेतन में उस समय जो वातावरण उन्होंने तैयार किया था, वह समय से कुछ आगे अवश्य था, किंतु हमारी सांस्कृतिक धारा से अविच्छिन्न था। उसके महत्त्व को हम अब समझ सकते हैं, जबकि दिल्ली राजधानी में तितलों और तितलियों का तूफ़ान देखते हैं। कवींद्र ने साहित्यिक क्षेत्र में सारे भारत को स्थायी प्रेरणा दी, जो चिरस्मरणीय रहेगी। लेकिन उनका महान कार्य इतने ही तक सीमित न था। उन्होंने चित्रकला, मूर्तिकला, गीत, नृत्य, वाद्य, अभिनय को न भुला उन्हें भी उचित स्थान पर बैठाया। उनके पास साधन कम थे। संस्थाएँ केवल उच्चादर्श के बल पर ही आगे नहीं बढ़ सकतीं, यद्यपि वह उनकी सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है। तो भी कवींद्र जो भी साधन जुटा पाते थे, जो भी धन भारत या बाहर से एकत्रित कर पाते थे, उनसे वह नवीन भारत के सर्वांगीन निर्माण की योजना तैयार करने की कोशिश करते थे। शांतिनिकेतन में भारतीय विद्या, भारतीय संस्कृति और भारतीय तत्वज्ञान के अध्ययन को भी वह भूले नहीं। बृहत्तर भारत पर तो शांतिनिकेतन में जितनी अच्छी और प्रचुर परिणाम में पुस्तकें हैं, वैसी भारत में अन्यत्र कम मिलेंगीं।
लेकिन रवींद्र यह भी जानते थे कि केवल साहित्य, संगीत और कला से भूखे-नंगे भारत को भोजन-वस्त्र नहीं दिया जा सकता। उन्होंने कृषि और उद्योग-धंधे के विकास की शिक्षा के लिए श्रीनिकेतन स्थापित किया। यह सब काम रवींद्र ने तब आरम्भ किया, जबकि भारत के कितने ही बुद्धि-विद्या के ठेकेदार मज़े से अंग्रेज़ों के कृपापात्र रहते, जीवन का आनंद लेते ऐसी कल्पनाओं को व्यर्थ का स्वप्न समझते थे।
आश्चर्य तो यह है कि आज हमारे कितने ही राष्ट्रीय नेता अंग्रेज़ों के इन पिट्ठुओं का स्मारक स्थापित करके कृतज्ञता प्रकट करना चाहते हैं। उसी प्रयाग में चंद्रशेखर आज़ाद के नहीं, सप्रू के स्मारक की अपील निकाली जा रही है।
रवींद्र हमारे देश के महान कवि ही नहीं थे, बल्कि उन्होंने युग, प्रवर्तन में क्रियात्मक भाग लिया। रवींद्र की प्रतिमा इतने व्यापक क्षेत्र में कभी सचेष्ट न होती, यदि उन्होंने आंशिक रूप में घुमक्कड़ी पथ स्वीकार न किया होता। उनकी कृतियों में देश-दर्शन ने कितनी सहायता की, इसे आँकना मुश्किल है, किंतु रवींद्र ने विशाल विश्व को आत्मीय के तौर पर देखा था। किसी को देखकर कहीं उन्हें चकाचौंध नहीं आयी, न किसी को हीन देखकर अवहेलना का भाव आया। यहाँ अवश्य रवींद्र का विशाल भ्रमण सहायक हुआ। रवींद्र की लेखनी में घुमक्कड़ी ने सहायता की, इसे हमें मानना पड़ेगा। और उसी ने उन्हें अपनी महती संस्था को विश्वभारती बनाने की प्रेरणा दी।
सुंदर काव्य, महाकाव्य की रचना में घुमक्कड़ी से बहुत प्रेरणा मिल सकती है। उसमें ऐसे पात्र और घटनाएँ मिल सकती हैं, जिन पर हमारे घुमक्कड़ कवि महाकाव्य रच सकते हैं। चौथी शताब्दी का अंत था, जबकि महाकवि कालिदास चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन में अपनी प्रतिभा का चमत्कार दिखा रहे थे, उसी समय कश्मीर के एक विद्वान भिक्षु सुंदरियों की खान तुषार (चीनी तुर्किस्तान के उत्तरी भाग) देश की नगरी कूचान (कूचा) में राजा-प्रजा से सम्मानित हो विहार कर रहे थे। कश्मीर उस समय और भी अधिक सौंदर्य का धनी था, और कूचान में तो मानो मानवियाँ नहीं अप्सराएँ रहा करती थीं—सभी महाश्वेताएँ, सभी नीलाक्षियाँ, सभी पिंगल केशाएँ और सभी अपने आनन से चंद्र को लजाने वाली। कश्मीरी भिक्षु ने त्रैलोक्य-सुंदरी राजकुमारी को अपना हृदय दे डाला। कूचान में मुक्त वातावरण था, लोग बुद्ध धर्म में भी अपार श्रद्धा रखते, और जीवनरस के आस्वादन में भी पीछे नहीं रहना चाहते थे। दोनों के प्रणय का परिणाम एक सुंदर बालक हुआ, जिसे दुनिया कुमारजीव के नाम से जानती है। कुमारजीव ने पितृभूमि कश्मीर में रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया, फिर मातुल-राजधानी में अपने विद्या के प्रताप से सत्कृत और पूजित हुए। उनकी कीर्ति चीन तक पहुँची। सम्राट के माँगने पर इंकार करने के कारण चीनी सेना ने आक्रमण किया, और अंत में कुमारजीव को साथ ले गई। 401 ई. से 412 ई. के बारह सालों में चीन में रहकर कुमारजीव ने बहुत से संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिनमें बहुत से संस्कृत में लुप्त हो आज भी चीनी में मौजूद हैं। कुमारजीव अपनी साहित्यिक भाषा के लिए चीन के साहित्यकारों में सर्वप्रथम स्थान रखते हैं। कुमारजीव की जीवनी यहाँ लिखना अभिप्रेत नहीं है, बल्कि हमें यह दिखलाना है कि एक कवि प्रतिभा कुमारजीव को लेकर सभी रसों से पूर्ण और भारत और बृहत्तर भारत की महिमा से ओत-प्रोत एक महाकाव्य लिख सकती है। महान घुमक्कड़ गुणावर्मा (431 ई.) भी एक महाकाव्य के नायक हो सकते हैं। कम्बोज में जाकर भारतीय संस्कृति और वैदिक धर्म की ध्वजा फहराने वाले माथुर दिवाकर भट्ट का जीवन भी किसी कवि को एक महाकाव्य लिखने की प्रेरणा दे सकता है। इसलिए यह अत्युक्ति नहीं होगी, यदि हम कहें कि घुमक्कड़ की चर्या सरस्वती के आह्वान में भारी सहायक हो सकती है।
हमारा घुमक्कड़ जावा के महाद्वीप में अब भी बच रही अपनी अनेकों सांस्कृतिक निधियों से प्रेरणा लेकर बरोबुदुर पर एह सुंदर काव्य लिख सकता है, तथा ‘अर्जुन-विवाह’, ‘कृष्णायन’, ‘भारतयुद्ध’, ‘स्मरदहन’ जैसे हिंदू जावा के सुंदर काव्यों को काव्यमय अनुवाद में हमारे सामने रख सकता है। यदि कविता के लिए चित्रविचित्र प्राकृतिक दृश्य प्रेरक होते हैं, यदि कविता में उदात्त अद्भुत घटनाएँ प्राण डालती हैं, यदि अपने चारों तरफ़ फैले विशाल कीर्ति शेष कवि को उल्लसित कर सकते हैं, तो हमारी यह आशा असम्भव कल्पना नहीं है कि हमारे तरुण घुमक्कड़ की काव्य-प्रतिभा अपनी घुमक्कड़ी के कितने ही दृश्यों से प्रभावित हो वाल्मीकि के कंठ की तरह फूट निकलेगी।
लेखनी का कोमल पदावली से अन्यत्र भी भारी उपयोग हो सकता है है। हमारे क्या, दूसरे देशों के भी प्राचीन साहित्य में गद्य को वह महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं प्राप्त था, जो आज उसे प्राप्त हुआ है।
उच्च श्रेणी के घुमक्कड़ के लिए लेखनी का धनी होना बहुत ज़रूरी है। बँधी हुई लेखनी को खोलने का काम यदि घुमक्कड़ी नहीं कर सकती, तो कोई दूसरा नहीं कर सकता।
घुमक्कड़ देश-विदेश में घूमता हुआ चित्र-विचित्र दृश्यों को देखता है, भिन्न-भिन्न रूप-रंग तथा आचार-विचार के लोगों के सम्पर्क में आता है। जिन दृश्यों को देखकर उसके हृदय में कौतूहल, आकर्षण और तृप्ति पैदा होती है, उसके लिए स्वाभाविक है कि उनके बारे में दूसरों से कहे। इसके लिए घुमक्कड़ का हाथ स्वतः लेखनी को उठा लेता है, लेखनी मानो स्वयं चलने लगती है। उसे मानसिक कल्पना द्वारा नई सृष्टि की आवश्यकता नहीं। दृश्यों, व्यक्तियों और घटनाओं को जैसे ही देखता है, वैसे ही वह हृदयस्थ होने लगती हैं, और फिर लेखनी अपने आप उन्हें वर्णों में अंकित करने लगती है। घुमक्कड़ को अपनी यात्रा किस रूप में लिखनी चाहिए, इसके लिए नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। उसे वास्तविकता को सामने रखते हुए जिस शैली में इच्छा हो, लिपिबद्ध कर देना चाहिए। आरम्भ में अभी-अभी लिखने का प्रयास करने वाले के लिए यह भी अच्छा होगा, यदि वह अपने किसी देश-बंधु को पत्ररूप में आँखों के सामने आते दृश्यों को अंकित करे। लेखक की प्रतिभा के उद्जागरण के लिए पत्र आरम्भ में बड़े सहायक होते हैं। कितने ही भावी लेखकों को उनके पत्रों द्वारा पकड़ा जा सकता है। पत्र दो व्यक्तियों के आपसी साक्षात् सम्बन्ध की पृष्ठभूमि में एक-दूसरे के लिए आकर्षक या आवश्यक बातों को लेकर लिखे जाते हैं। यदि लेखक में प्रतिभा है, तो उसका चमत्कार लेखनी से ज़रूर उतरेगा। लेकिन, यह कोई आवश्यक नहीं है, कि यात्रा-सम्बन्धी लेख पत्रों के रूप में आरम्भ किए जाएँ। घुमक्कड़ आरम्भ से ही यात्रा विवरण के रूप में लेखनी चला सकता है। लिखने के ढंग के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं। अच्छे लेखक भी अपने पहले के लेखकों से प्रभावित ज़रूर होते हैं, किंतु बिना ही उनकी प्रयास अपनी निजी शैली भी बन जाती है।
यात्रावर्णन स्वयं एक उच्च साहित्य का रूप ले सकता है, यह कितने ही लेखकों के वर्णन से समझ में आ सकता है। जो सतत घुमक्कड़ है, और नए-नए देशों में घूमता रहता है, उसके लिए तो यात्राएँ ही इतनी सामग्री दे सकती हैं, जिस पर लिखने के लिए सारा जीवन पर्याप्त नहीं हो सकता। लेकिन यात्राओं के लेखक दूसरी वस्तुओं के लिखने में भी कृतकार्य हो सकते हैं। यात्रा में तो कहानियाँ बीच में ऐसे ही आती रहती हैं, जिनके स्वाभाविक वर्णन से घुमक्कड़ कहानी लिखने की कला और शैली को हस्तगत कर सकता है। यात्रा में चाहे प्रथम पुरुष में लिखें या अन्य पुरुष में, घुमक्कड़ तो उसमें शामिल ही है, इसलिए घुमक्कड़ उपन्यास की ओर भी बढ़ने की अपनी क्षमता को पहचान सकता है, और पहले के लेखक का अभ्यास इसमें सहायक हो सकता है।
ऐतिहासिक उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों के साथ-साथ भौगोलिक पृष्ठभूमि का ज्ञान अत्यावश्यक है। घुमक्कड़ का अपना विषय होने से वह कभी भौगोलिक अनौचित्य को अपनी कृतियों में आने नहीं देगा। फिर बृहत्तर भारत के भारत-सम्बन्धी उपन्यास लिखने में तो घुमक्कड़ को छोड़कर किसी को अधिकार नहीं है। कुमारजीव, गुणावर्मा, दिवाकर, शांतिरक्षित, दीपंकर श्रीज्ञान, शाक्य श्रीभद्र की जीवनियों के चारों तरफ़ हम उस समय के बृहत्तर भारत का सजीव चित्र उतार सकते हैं। हाँ, इसके लिए घुमक्कड़ को जहाँ-तहाँ ठहरकर सामग्री जमा करनी पड़ेगी। चूँकि हमारे पुराने घुमक्कड़ दूर-दूर देशों में चक्कर काटते रहे, इसलिए घुमक्कड़ को सामग्री एकत्रित करने के लिए दूर-दूर तक घूमना पड़ेगा। इतिहास का ज्ञान हरेक सभ्य जाति के लिए अत्यावश्यक है। लेकिन जो इतिहास केवल राजा-रानियों तक ही अपने को सीमित रखता है, वह एकांगी होता है, उससे हमें उस समय के सारे समाज का परिचय नहीं मिलता। ऐतिहासिक उपन्यास सर्वांगीण इतिहास को सजीव बनाकर रखते हैं। जो ऐतिहासिक उपन्यासकार अपने उत्तरदायित्व को समझता है, वह कभी ऐतिहासिक या भौगोलिक अनौचित्य अपनी कृति में नहीं आने देगा। हमारे घुमक्कड़ के लिए यहाँ कितना बड़ा क्षेत्र है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं है।
घुमक्कड़ को अपनी लेखनी चलाते समय बड़े संयम रखने की आवश्यकता है। रोचक बनाने के लिए कितनी ही बार यात्रा-लेखक अतिरंजन और अतिशयोक्ति से ही काम नहीं लेते, बल्कि कितनी ही असम्भव और असंगत बातें रहस्यवाद के नाम से लिख डालते हैं। उच्च घुमक्कड़ों की दुनिया में आने के पहले जो भूगोलज्ञान लोगों के पास था, वह मिथ्याविश्वासों से भरा था। लोग समझते थे, किसी जगह एक टंगा लोगों का देश है, वहाँ सभी लोग एक टाँग के होता है। कहीं बड़े कान वालों का देश माना जाता था, जिन्हें ओढ़ना-बिछौना की आवश्यकता नहीं, वह एक कान को बिछा लेते और दूसरे को ओढ़ लेते हैं। इसी तरह नाना प्रकार की मिथ्या कथाएँ प्राग्-घुमक्कड़ कालीन दुनिया में प्रसिद्ध थीं। घुमक्कड़ों ने सूर्य की भाँति उदय होकर इस सारे तिमिर-तोम को छिन्न-भिन्न किया। यदि आज घुमक्कड़ अपनी दायित्वहीनता का परिचय देते नाना बहानों से मिथ्या विश्वासों को प्रोत्साहन देते हैं, तो वह अपने कुलधर्म के विरुद्ध जाते हैं। कावागूची ने अपने ‘तिब्बत के तीन वर्ष’ ग्रंथ में कई जगह अतिरंजन से काम लिया है। मैं समझता हूँ, यदि उनकी पुस्तक किसी अंग्रेज़ या अमेरिकन प्रकाशक के लिए लिखी गई होती, तो उसमें और भी ऐसी बातें भरी जातीं। आज प्रेस और प्रकाशन करोड़पतियों के हाथ में चले गए हैं। इंग्लैंड और अमेरिका में उन्हीं का राज्य है। भारत में भी अब वही होता जा रहा है।
यह करोड़पति प्रकाशक लोगों को प्रकाश में नहीं लाना चाहते; वह चाहते हैं कि वह और अँधेरे में रहें, इसीलिए वह लोगों को हर तरह से बेवक़ूफ़ रखने की कोशिश करते हैं।
मुझे अपना तजर्बा याद आता है : लंदन के बहुप्रचलित ‘डेलीमेल’ (पत्र) के सम्वाददाता ने मेरी तिब्बत-यात्रा के बारे में लिखते हुए बिलकुल अपने मन से यह भी लिख डाला—”यह तिब्बत के बीहड़ जंगलों में घूम रहे थे, इसी वक़्त डाकुओं ने आकर घेर लिया, वह तलवार चलाना ही चाहते थे कि भीतर से एक बाघ दहाड़ते हुए निकला, डाकू प्राण लेकर भाग गए।”
पत्र के ऑफ़िस से जब यह बात मेरे पास भेजी गई, तो मैंने झूठी असम्भव बातों को काट दिया और बतलाया कि तिब्बत में न वैसा जंगल है, और न वहाँ बाघ ही होते हैं। लेकिन अगले दिन देखा, दूसरी पंक्तियों में कुछ कम भले ही हो गई थीं, किंतु काटी हुई पंक्तियाँ वहाँ मौजूद थीं। ‘डेलीमेल’ वाले एक ही ढेले से दो चिड़ियाँ मार रहे थे। मुझे वह ढोंगी और झूठा साबित करना चाहते थे और अपने 14-15 लाख ग्राहकों में से काफ़ी को ऐसे चमत्कार की बात सुनाकर हर तरह के मिथ्या विश्वासों पर दृढ़ करना चाहते थे। जनता जितना अंधविश्वास की शिकार रहे, उतना ही तो इन जोंकों को लाभ है। इससे यह भी मालूम हो गया कि इस तरह के चमत्कारों को भी ग्रन्थ में भरने का प्रोत्साहन प्रकाशकों की ओर से दिया जाता है। उसी समय हमारे देश के एक स्वामी लंदन में विराज रहे थे। उन्होंने कुछ अपने और कुछ अपने गुरु के सम्बन्ध से हिमालय, मानसरोवर और कैलाश के नाम से ऐसी-ऐसी बातें लिखी थीं, जिनको यदि सच मान लिया जाए, तो दुनिया की कोई चीज़ असम्भव नहीं रहेगी। घुमक्कड़ों को अपनी ज़िम्मेवारी समझनी चाहिए और कभी झूठी बातों और मिथ्या विश्वास को अपनी लेखनी से प्रोत्साहन देकर पाठकों को अंधकूप में नहीं गिराना चाहिए।
लेखनी का घुमक्कड़ी से कितना सम्बन्ध है, कितनी सहायता वहाँ से लेखनी को मिल सकती है, इसका दिग्दर्शन हमने ऊपर करा दिया। लेखनी की भाँति ही तूलिका और छिन्नी भी घुमक्कड़ी के सम्पर्क से चमक उठती है। तूलिका को घुमक्कड़ी कितना चमका सकती है, इसका एक उदाहरण रूसी चित्रकार निकोलस रोयरिक थे। हिमालय हमारा है, यह कहकर भारतीय गर्व करते हैं, लेकिन इस देवात्मा नगाधिराज के रूप को अंकित करने में रोयरिक की तूलिका ने जितनी सफलता पायी, उसका शतांश भी किसी ने नहीं कर दिखाया। रोयरिक की तूलिका रूस में बैंठे इस चमत्कार को नहीं दिखला सकती थी। यह वर्षों की घुमक्कड़-चर्या थी, जिसने रोयरिक को इस तरह सफल बनाया। रूस के एक दूसरे चित्रकार ने पिछली शताब्दी में ‘जनता में ईसा’ नामक एक चित्र बनाने में 25 साल लगा दिए। वह चित्र अद्भुत है। साधारण बुद्धि का आदमी भी उसके सामने खड़ा होने पर अनुभव करने लगता है कि वह किसी अद्वितीय कृति के सामने खड़ा है। इस चित्र के बनाने के लिए चित्रकार ने कई साल ईसा की जन्मभूमि फ़िलस्तीन में बिताए। वहाँ के दृश्यों तथा व्यक्तियों के नाना प्रकार के रेखाचित्र और वर्णचित्र बनाए, अंत में उन सबको मिलाकर इस महान चित्र का उसने निर्माण किया। यह भी तूलिका और घुमक्कड़ी के सुंदर सम्बन्ध को बतलाता है।
छिन्नी क्या, वास्तुकला के सभी अंगों में घुमक्कड़ी का प्रभाव देखा जाता है। कलाकार की छिन्नी एक देश से दूसरे देश में, यहाँ तक कि एक द्वीप से दूसरे द्वीप में छलाँग मारती रही है। हमारे देश की गंधार-कला क्या है? ऐसी ही घुमक्कड़ी और छिन्नी के सुंदर सम्बन्ध का परिणाम है। जावा के बरोबुदुर, कम्बोज के अंकोरवात और तुंगह्वान की सहस्र-बुद्ध गुफाओं का निर्माण करने वाली छिन्नियाँ उसी स्थान में नहीं बनीं, बल्कि दूर-दूर से चलकर वहाँ घुमक्कड़ी के प्रभाव ने मूलस्थान की कला का निर्जीव नमूना न रख उसे और चमका दिया। आज भी हमारा घुमक्कड़ अपनी छिन्नी लेकर विश्व में कहीं भी निराबाध घूम सकता है।
घुमक्कड़ी लेखक और कलाकार के लिए धर्म-विजय का प्रयाण है, वह कला-विजय का प्रयाण है, और साहित्य-विजय का भी।
वस्तुतः घुमक्कड़ी को साधारण बात नहीं समझनी चाहिए, यह सत्य की खोज के लिए, कला के निर्माण के लिए, सद्भावनाओं के प्रसार के लिए महान दिग्विजय है!