चूल्हे में ढकेलती अपने हाथों से आग
माँ हमेशा दुःखों को
ऐसे ही जलाना जानती थी

अपने माथे सजाती थी बड़ा-सा कुमकुम
और अपने साड़ी के कोने से
उसे बनाती थी पृथ्वी-सा गोल

जीवन के हलाहल अपने माथे ले
भूख की आग पर सेकती थी रोटियाँ
और श्रम के पसीने में डुबोकर खा
बुझाती थी पेट की आग

पैरों में नहीं पहनती थी कुछ
नंगे पैरों से दरिद्रता भरे जीवन में
लगाती थी श्रम भरे चक्कर

क्या कुछ नहीं करती थी हमारे लिए

मैंने नहीं देखा डायना को
लेकिन यक़ीन से कह सकता हूँ
नहीं होगी कोई डायना मेरी माँ-सी सुन्दर,
धान काटती माँ मोनालिसा से भी
अधिक सुन्दर लगती थी मुझे

मैं जिस बंजर जगह से आता हूँ
मैंने नहीं देखी कोई नदी जो
बहती हो साल के बारह महीने,
शायद नदी-सी बहती देख माँ को
नदी ने बहना सौंप दिया होगा उसे

माँ मुझे कभी
गावँ के पहाड़ से भी ऊँची लगी
तो कभी ईंटें बनाते वक़्त
जलते कोयले-सी लगी
जो ख़ुद जलकर
हमारे जीवन की ईंटें मज़बूत बनाती रही

माँ हमेशा हमारे जीवन के
दुःखों पर रखा पेपरवेट थी
उसने कभी दुःख को उड़कर
नहीं पहुँचने दिया हमारे पास!

Book by Vishal Andhare:

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