मुअज़्ज़िज़ ख़्वातीन व हज़रात!
मुझसे कहा गया है कि मैं यह बताऊँ कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ। यह ‘क्योंकर’ मेरी समझ में नहीं आया— ‘क्योंकर’ के मानी लुग़त में तो यह मिलते हैं : कैसे और किस तरह।
अब आपको क्या बताऊँ कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ। यह बड़ी उलझन की बात है। अगर मैं ‘किस तरह’ को पेशे-नज़र रखूँ तो यह जवाब दे सकता हूँ : “मैं अपने कमरे में सोफ़े पर बैठ जाता हूँ, काग़ज़-क़लम पकड़ता हूँ, और बिस्मिल्लाह करके अफ़साना लिखना शुरू कर देता हूँ—मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं। मैं उनसे बातें भी करता हूँ, उनकी बाहम लड़ाइयों का फ़ैसला भी करता हूँ। अपने लिए मलाद भी तैयार करता हूँ—कोई मिलनेवाला आ जाए तो उसकी ख़ातिरदारी भी करता हूँ—मगर अफ़साना लिखे जाता हूँ।”
अब ‘कैसे’ का सवाल आए तो मैं यह कहूँगा : “मैं वैसे ही अफ़साना लिखता हूँ, जिस तरह खाना खाता हूँ, ग़ुस्ल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ।”
अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना क्यों लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है—
“मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़सानानिगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है।”
मैं अफ़साना न लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूम होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने या मैंने ग़ुस्ल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी। मैं अफ़साना नहीं लिखता, हक़ीक़त यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है। मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ—यूँ तो मैंने बीस से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे बाज औक़ात हैरत होती है कि यह कौन है, जिसने इस क़दर अच्छे अफ़साने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुक़दमे चलते रहते हैं।
जब क़लम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता है, जिसे उर्दू आती है न फ़ारसी, अंग्रेज़ी न फ़्रांसीसी।
अफ़साना मेरे दिमाग़ में नहीं, जेब में होता है, जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती। मैं अपने दिमाग़ पर ज़ोर देता हूँ कि कोई अफ़साना निकल आए—अफ़सानानिगार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ। सिगरेट पे सिगरेट फूँकता हूँ, मगर अफ़साना दिमाग़ से बाहर नहीं निकलता—आख़िर थक-हारकर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ।
अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुका होता हूँ, इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है। करवटें बदलता हूँ; उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ; बच्चियों को झूला झुलाता हूँ, घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ; नन्हे-मुन्ने जूते, जो घर में जा-बजा बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ—मगर कमबख़्त अफ़साना, जो मेरी जेब में पड़ा होता है, मेरे ज़ेहन में उतरता नहीं—और मैं तिलमिलाता रहता हूँ।
जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता। सुना है कि हर बड़ा आदमी ग़ुसलख़ाने में सोचता है—मुझे तज्रबे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ, इसलिए कि मैं ग़ुसलख़ाने में भी नहीं सोच सकता।
हैरत है कि फिर भी मैं पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का बहुत बड़ा अफ़सानानिगार हूँ! मैं यही कह सकता हूँ कि मेरे नक़्क़ादों की ख़ुशफ़हमी है, या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ, उन पर कोई जादू कर रहा हूँ।
क़िस्सा यह है कि मैं ख़ुदा को हाज़िरो-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ। अक्सर औक़ात ऐसा हुआ है कि जब मैं ज़च-बच हो गया हूँ तो मेरी बीवी ने मुझसे कहा है : “आप सोचिए नहीं… क़लम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए।”
मैं उसके कहने पर क़लम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ। दिमाग़ बिलकुल ख़ाली होता है, लेकिन जेब भरी होती है और ख़ुद-ब-ख़ुद कोई अफ़साना उछल के बाहर आ जाता है। मैं ख़ुद को इस लिहाज़ से अफ़सानानिगार नहीं, जेबकतरा समझता हूँ, जो अपनी जेब ख़ुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता है।
मुझ-ऐसा भी बेवक़ूफ़ दुनिया में कोई और होगा!
मंटो की कहानी 'नंगी आवाज़ें'