मन, मौन और मान
रोज़ सुबह खड़े हो जाते हैं
स्टार्टिंग लाइन पे
रेस के लिए
जैसे कोई
बुल-फाइट
होने वाली हो
और लक्ष्य होता है
ख़ुद को बचाने का
और
‘मैं’ प्रत्यक्ष
सब देखता हूँ
संजय की तरह
मन भागता है
नई ख़्वाहिशें लिए
मौन भागता है
ज़ख्मी हौंसलों के साथ

और मान भागता ही नहीं…
चलता भी नहीं…
रोज़ घायल हो जाता है
और रेस से सबसे पहले बाहर
मुकाबला सिर्फ़
मन और मौन का होता है… रोज़

मैं अपने ही मन का मौन हूँ
मैं अपने ही मन का मान हूँ

मैं अपने ही मन का हौंसला हूँ!

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