मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे!

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (जन्म: 13 फ़रवरी, 1911; मृत्यु: 20 नवम्बर, 1984) प्रसिद्ध शायर थे, जिनको अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्म, ग़ज़ल लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था।