जब किसी अपने का हाथ छूट रहा हो तो अंतर काँप उठता है। एक टूटन महसूस होने लगती है, एक डर पैदा होता है, जिसे हम किसी भी तरह, तर्कों और व्यवहारिकता की ओर से मुँह फेरकर उसी क्षण नकार देना चाहते हैं। लेकिन हाथ, विपरीत दिशा में समय की चाल चलता जाता है। हम भी साथ चलने लगते हैं। वह दौड़ने लगता है। हम भी दौड़ने लगते हैं। वह गायब हो जाता है। हमारी कोशिश करते रहने और अंत में जीत जाने की ज़िद को धता बताते हुए। अंत में कुछ नहीं बचता। केवल कुछ सफेद फूलों और सूखे पत्तों के अलावा..

लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। ‘अक्टूबर’ में ऐसा नहीं होता। इसमें भी एक हाथ छूट रहा है, लेकिन कोई अपना नहीं है। केवल एक सम्भावना है, जो कभी सम्भावित भी नहीं समझी गयी। कोई टूटन नहीं है, कोई डर नहीं है, बस एक शिकायत है कि हाथ छूटना कुछ लोगों के लिए इतना सहज क्यों है? क्यों उनके पास कुछ नकार देने के लिए नहीं है? जिस दिशा में वह हाथ बढ़ रहा है, क्यों उस दिशा को विपरीत मान लिया गया है? क्यों उस हाथ की पकड़ में रही प्रत्येक चीज़ बेतहाशा दौड़ नहीं जाती उसके पीछे? और नहीं दौड़ना है तो आँखें बन्द कर इंतज़ार में होना उन्हें इतना खलता क्यों है? क्या पता महज़ दिन और रात का अंतर हो, हाथ वहीं हो और अंधेरे में कुछ दिख नहीं रहा हो! क्या पता यह केवल भ्रमण हो और पाँव थक जाने पर हाथ लौट आए! क्या पता डाल से टूटे उस सफेद फूल की जिजीविषा सूख चुके पत्तों से कहीं ज़्यादा हो..?

डैन (वरुण धवन) फाइव-स्टार होटल में कुढ़-फुक कर काम करता एक आलसी और लापरवाह इंसान है, जो अपनी कमियाँ दुनिया के अस्तित्व पर थोप देना चाहता है। शिउली (बनिता संधू) अपने काम में माहिर एक शांत और सहज इंसान, जिसके व्यक्तित्व को न जानना दर्शकों के लिए बहुत ज़रूरी है। साल की आखिरी शाम और एक हादसा! शिउली की सांसें टूट रही हैं और डैन बेफिक्र सो रहा है। क्योंकि उनके बीच कहीं कोई सम्बन्ध नहीं है, साथ काम करने के अलावा। लेकिन एक सवाल है जो डैन के चेहरे पर पानी के छपकों की तरह पड़ता है, एक सवाल जो शिउली के उस हादसे से मिलने से पहले उसके होठों से मिला था- ‘डैन कहाँ हैं?” और डैन की नींद जाग उठती है..

एक ऑफिस पार्टी में अपने कलीग के बारे में किए गए इस प्रश्न को सहज लेना ही शायद एकमात्र तरीका होता, हम सबके लिए। लेकिन डैन के लिए नहीं। डैन सोचना चाहता है कि शिउली ने ऐसा क्यों पूछा? डैन शिउली को बताना चाहता है कि वह कहाँ था। वह जिन फूलों को मसल दिया करता था, आज वह उन्हें शिउली के सिरहाने रखना चाहता है। वह शिउली की आँखों की पुतलियों की गति से अन्दाज़ा लगाने की कोशिश करना चाहता है कि कहीं वह उससे नाराज़ तो नहीं। वह बोलना चाहता है “आई एम सॉरी, अब नहीं जाऊँगा..” उन सभी दिनों के लिए जिनमें उसने प्रैक्टिकल होना चुना। वह क्या चाहता है ठीक-ठीक शायद उसे भी नहीं पता, लेकिन वह चाहने की आदत खत्म नहीं करना चाहता..

अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी शिउली जो शायद एक अंत की ओर अग्रसर है, वह डैन के दिल के किसी कोने को इस तरह छू लेती है कि डैन को अब ज़िन्दगी में कुछ चाहिए तो बस यह कि शिउली ठीक हो जाए, उससे बातें करें और उसके सभी सवालों का जवाब दे। उसे अब न ऑफिस की फिक्र है, न घर की। दोस्तों से पैसे लेता है, फिर उनसे ही लड़ता है और नौकरी तक से निकाल दिया जाता है, लेकिन एक धुन जो उससे नहीं छूटती, वह है शिउली। और एक सामाजिक प्राणी पूछे “क्यों?”, तो डैन के पास शायद ही उसका कोई जवाब हो!

फिल्म के रूप में ‘अक्टूबर’ एक साक्ष्य है कि कला किस तरह आपके भीतर की सभी ठोस धातुएँ पिंघलाकर संवेदनाओं की एक नदी बहा देती है जिसमें आपको डूबकर मर जाने से भी कोई परहेज नहीं होता। सफेद और नीले रंग से बना अस्पताल और उदासी से भरे कुछ कमरे आपको सौ ब्लॉकबस्टरों से ऊपर उठकर जीवन की भव्यता के दर्शन कराते हैं, जिसमें आप बार-बार बहुत छोटा महसूस करते हैं लेकिन फिर भी वहाँ से निकलना नहीं चाहते। क्योंकि आप महसूस करते हैं कि उस जगह पर होने के लिए पहले से ही कोई श्रापित है, और आप उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहते।

फिल्म के ट्रेलर में लिखा था यह एक प्रेम कहानी नहीं, प्रेम को दर्शाती एक कहानी है। फिल्म देखकर यह बात अंडरस्टेटेड लगी क्योंकि यह फिल्म प्रेम को प्रेम होने की सीमाओं से कहीं आगे धकेल देती है। जहाँ प्रेम का कोई रूप नहीं है, केवल एक आकार है। जहाँ प्रेम बंधन नहीं, एक चुनाव है। जहाँ प्रेम जड़ नहीं, एक शाख है जिससे झड़े हुए फूल यह धरती मुरझाने नहीं देती..

तकनीकी पहलुओं पर ज़्यादा बोलने के काबिल नहीं हूँ, लेकिन एक बात पर इस फिल्म के ज़्यादातर प्रशंसकों से सहमत नहीं हूँ इसलिए कह देना चाहता हूँ। विषय को देखते हुए कई दृश्यों में ऐसा लगा कि वे दृश्य वरुण धवन को अभिनय का एक स्कोप प्रदान करने के लिए लिखे गए हैं। कुछ दृश्यों में एक माहौल बनाने की जबरन कोशिश दिखी जो वरुण के कंधों पर ठीक-ठाक टिक नहीं पाए। मुझे अभी भी इस फिल्म का सबसे कमजोर पहलू वरुण का अभिनय ही लगा। वरुण अपनी बाकी फिल्मों से कितना बेहतर इसमें हैं, अगर इस तरह सोचा जाए तो शायद कुछ सकारात्मक निकल जाए।

बहरहाल, समग्रता में, ‘अक्टूबर’ एक ऐसी फिल्म ज़रूर साबित हुई है जिसने कई स्तरों पर नए विषयों को उठाया है और हमारे मन के उन कोनों को महकाया है जहाँ धूप आसानी से नहीं पहुँचती।

जब भी मौका मिले, ज़रूर देखिए..!!

P.S. हॉल से जब एग्जिट कर रहा था तो स्क्रीन के बिल्कुल नीचे सफेद रंग का कुछ बिखरा पड़ा था। दूर से हरसिंगार के फूल लगे और मेरा मन सिनेमा वालों की क्रिएटिविटी पर गद-गद हो गया। पास जाकर पता चला पॉपकॉर्न थे।

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

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