असीर लोगो
उठो और उठकर पहाड़ काटो
पहाड़ मुर्दा रिवायतों के
पहाड़ अंधी अक़ीदतों के
पहाड़ ज़ालिम अदावतों के

हमारे जिस्मों के क़ैदख़ानों में
सैकड़ों बेक़रार जिस्म
और उदास रूहें सिसक रही हैं
वो ज़ीना-ज़ीना भटक रही हैं
हम इनको आज़ाद कब करेंगे

हमारा होना
हमारी इन आने वाली नस्लों के वास्ते है
हम इनके मक़रूज़ हैं
जो हमसे वजूद लेंगे, नुमूद लेंगे
कटे हुए एक सर से लाखों सरों की तख़्लीक़
अब कहानी नहीं रही है
लहू में जो शय धड़क रही है, गमक रही है
हज़ारों आँखें
बदन के ख़लियों से झाँकती बेक़रार आँखें
ये कह रही हैं
असीर लोगों
जो ज़र्द पत्थर के घर में
यूँ बेहिसी की चादर लपेटकर सो रहे हैं
उनको कहो कि उठकर पहाड़ काटें
हमें रिहाई की सोचना है!

इशरत आफ़रीं की नज़्म 'मेनोपॉज़'

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