सदाक़त देखते ही देखते
चौरसी से कुरेद लेता सख़्त से सख़्त काठ पर
ख़ूबसूरत बेल-बूटे, नाचता हुआ मोर
छायादार पेड़, फुदकती गिलहरी, उड़ती तितली
खिला हुआ फूल, खपरेल वाला सुंदर मकान
मटकी लिए जाती पतली कमर वाली षोडशी

उसे मिला हुआ सरकार बहादुर से
माकूल मुआवज़ा, पेंशन आदि का अस्फुट आश्वासन
ढाढ़स भरे गोलमटोल अल्फ़ाज़
शिल्पकार होने का चित्रमय शिनाख़्ती कार्ड

लोग कहते— यार सदाक़त, तू शिल्पकार तो शानदार है
वह मारे ख़ुशी के लगभग दोहरा हुआ जाता
पहली फ़ुरसत में सही दिशा भाँप
परवरदिगार के सजदे में सर नवाता
उसे नाज़ था अपनी हुनरमंदी पर
अक्सर बच्चों सहित अधपेट सोता
उकता गया आख़िरकार

उसने हुनरमंद हाथों को काँख में दबा
मस्जिद के पेश इमाम से पूछा—
हज़रत बताएँ करूँ क्या
जवाब आया— पाँच वक़्ती नमाज़ी बनो!
फिर इससे पूछा, उससे पूछा
एक दुनियादार ने दबी ज़बान में सलाह दी—
मियाँ छोड़ो ये कारीगरी-वारीगरी
चलो आओ ई-रिक्शा चलाओ

उसने झिझकते-झिझकते
बैटरी वाली रिक्शा किराये पर उठायी
चाबी घुमायी, बेआवाज़ स्टार्ट हुई
दौड़ चली सड़क पर
वह सवारियाँ ढोता
जायज़ भाड़ा लेता, मालिक को किराया देता है
पुलिस वाले को नाजायज़ हफ़्ता भी
जुम्मेरात को चढ़ा आता पीर पर बताशे
उसका हुनर अब क़तई शर्मिदा नहीं

अधपेट सोना अफ़साना हुआ
वह जब कभी चौरसी को देखता
तो उदास हो उठता— बेवजह
घर के सहन में लगी ज़ंग खायी कील पर लटका
डोरे में बंधा शिल्पकार वाला शिनाख़्ती कार्ड
हवा के तेज़ झोंके के साथ डोलता
सदाक़त वल्द करमुद्दीन को मुँह चिढ़ाता है!

निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : gupt.nirmal@gmail.com