तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलम्बन!
जहाँ श्वास की हर सिहरन में, आहों के अम्बार सुलगते
जहाँ प्राण की प्रति धड़कन में, उमस भरे अरमान बिलखते
जहाँ लुटी हसरतें हृदय की, जीवन के मध्याह्न प्रहर में
जहाँ विकल मिट्टी का मानव, बिक जाता है पुतलीघर में
भटक चले भावों के पंछी, भव रौरव में पाठ बिसार कर
जहाँ ज़िंदगी साँस ले रही महामृत्यु के विकट द्वार पर
वहाँ प्राण विद्रोही बनकर, विप्लव की झंकार करेंगे
और सभ्यता के शोषण के सत्यानाशी ढूह गिरेंगे
मुक्त बनेगा मन का पंछी तोड़ काट कारा के बन्धन
तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलम्बन!
तुम कहते सन्तोष शान्ति का, महा-मूल-मन्त्र अपना लूँ
जीवन को निस्सार समझकर, ईश्वर को आधार बना लूँ
पर शोषण का बोझ सम्भाले आज देख वह कौन रो रहा
धर्म कर्म की खा अफ़ीम वह प्रभु मंदिर में पड़ा सो रहा
कायर रूढ़िवाद का क़ैदी, क्या उसको इंसान समझ लूँ
परिवर्तन-पथ का वह पत्थर, क्या उसको भगवान् समझ लूँ
मानव खुद अपना ईश्वर है, साहस उसका भाग्य विधाता
प्राणों में प्रतिशोध जगाकर, वह परिवर्तन का युग लाता
हम विप्लव का शंख फूँकते, शत-सहस्त्र भूखे नंगे तन
तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलम्बन!