‘Vida’, Hindi Kavita by Vivek Kumar Jain

विदा हिन्दी का अद्भुत शब्द है
मैं लेता हूँ विदा बारहां
हर बार लौट के वहीं पहुँच जाता हूँ,
जहाँ आख़िरी बार गले लगकर तुमने
प्रेम में आख़िरी इच्छा ज़ाहिर की थी

मेरी दादी ने विदा ली घर से
जी वो दादा के संग कहीं और
लेकिन मरना वो वहीं पुरखों के
घर में चाहती है
कहती है ‘नाल बँधी है’
हालाँकि वो घर ठाकुरों ने कब्ज़ा लिया है

पिता से मैं
हुआ था विदा कह कि
‘कभी तुहारी देहरी पर क़दम नहीं रखूँगा’
लेकिन हर दिवाली
देहरी पर दिए मैं ही रखता हूँ

विदा हिन्दी का अद्भुत शब्द है
लोग प्रेमिकाओं से विदा हो
पत्नियों के साथ रहते हैं
और प्रेमिका से विदाई का आख़िरी दिन
ताउम्र याद करते हैं

एक कवियत्री लिखती है कविता
हर वक़्त कहती है ‘मैं विदा कर दूँगी
प्रेमी को अपनी कविताओं से’
और हर नयी कविता में संकल्प दुहराती है!

कोई विदा नहीं होता
किसी से, कहीं से…
थोड़ा-सा रह जाता है, थोड़ा-सा बचा ले आता है…

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