दूर गाँव के पूर्वी छोर पर मेहतरों का एक टोला था। जिसमें बीस-तीस परिवार शहर पर भी जूठन खा-खाकर अपने पेट भरते थे। वहाँ मकान के नाम पर कुछ फूस की झोंपड़ियाँ तथा आँगन के रूप में गोबर से लिपे-पुते ज़मीन के छोटे-बड़े टुकड़े थे। गाँव का नाम था मक़दूमपुर। कहते हैं कभी औरंगजेब के जमाने में हिन्दुओं को उजाड़कर यह गाँव बसाया गया था। इस बात में कितना सच है और कितना झूठ, यह तो कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु अब यहाँ मुसलमानों के चार-पाँच मकान ही दिखाई देते हैं। उन्हीं पुराने मकानों के बीच अवशेष मात्र एक टूटी-सी मस्जिद, जिसे लोग अब लंगड़ी मस्जिद के नाम से पुकारने लगे हैं।
मुसलमानों के चन्द मकान बिलकुल मेहतरों की झोंपड़ियों में सिमटे हुए थे। आने-जाने का भी एक ही रास्ता था, जो मेहतरों की बस्ती से होकर जाता था। गाँव में अन्य जातियों के भी मकान थे लेकिन थोड़ा हटकर। सुना जाता है कि अब से बहुत समय पहले जब इस गाँव में शूद्र प्रवेश करते थे तो उनकी पीठ पीछे बहुत झाड़ बँधा होता था। किन्तु अब वे मान्यताएँ थोड़ी ढीली-ढाली-सी हो गई थीं। पुराने लोग जाते-जाते हुए भी ऐंठन नहीं छोड़ रहे थे और नई पीढ़ी के बीच किसे फुर्सत थी कि जो इन बातों को देखे? अपने काम से काम, गली-मुहल्ले में अब वैसी पंचायत भी नहीं होती। चौपाल पर हुक्कों की गुड़गुड़ाहठ कहाँ…?
वातावरण में अब खमीरी तम्बाकू की हल्की-हल्की गंध भी नहीं तैरती। हुक्के पीने वाले ही नही होंगे तो भरने वाले कहाँ से आएँगे…? पहले हुक्का भरने का काम नाई करते थे। दो मिनट हुए नहीं कि नई चिलम तैयार। एक-एक ठाकुर के यहाँ चार-चार, पाँच-पाँच नाई हुआ करते थे। सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी से बँधे होते थे। कौन अपने काम में कितना दुरूस्त है, यह ठाकुर को पहले कश में ही मालूम चल जाता था। राह चलते लोग सुबह से शाम तक सलाम बजाते न थकते थे। गाँव के मुखिया की बात सभी को माननी पड़ती थी। अब कहाँ कौन किसको मुखिया मानता है? घर-घर में सब चौधरी बन गए हैं।
एक दिन इसी गाँव के मेहतरों वाले टोले से काली आँधी की तरह यह बात उठी – हम जूठन न लेंगे और न ही गन्दगी साफ करेंगे। बस्ती में छह-सात ही बड़े-बूढ़े थे। वे हुक्का गुड़गुड़ाते हुए एक-दूसरे से बतियाते। मिट्टी के हुक्कों के पास शू-शें करते सुअर और उनके पीछे-पीछे दौड़ते बच्चे। आसपास छिटकी गन्दगी, कूड़े के बड़े-बड़े ढेर, पास ही मिट्टी और फूस की टूटीफूटी झोंपड़ियों, जिसमें झाँकते उनकी जातीयता के चिह्न। इस ओर से कोई गुजरता तो पहले ही अपनी नाक पर धोती का कोना या रूमाल रख लेता। औरतें होती तो साड़ी के पल्लू से नाक और ओंठ दोनों ढक लेती और इससे पहले कि बदबू का भभका टकराए वे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती हुई निकल जातीं।
“ससुरे दूसरों की गन्दगी उठाते हैं और अपनी नहीं…, कितनी बदबू, सत्यानाश हो इनका….”
इस टोले से गुजरने वाला कोई मुसाफिर ऐसा न होता जो नाक में घुसी बदबू को चुपचाप सहकर आगे बढ़ जाता हो। मुँह से कुछ-न-कुछ उगले बिना नहीं रहा जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि शहर से मेहतरों के टोले में ही कोई बुर्राक कपड़े पहने हुए अप-टू-डेट आता तो दो-चार बातें सुनाए बिना भी नहीं रहता। उसकी बातों से एक आम शहरी की बू आती। बात-बात में शहर और गाँव में रहने-सहने के अन्तर को बतलाया जाता। हालांकि बस्ती में रहने वालों पर इन सब बातों का जरा भी प्रभाव न पड़ता। गन्दगी के साम्राज्य के बीच अधिकांश मेहतर बड़ी बेफिक्री से रहते।
गाँव के ठाकुरों की बस्ती अलग से ही पहचानी जाती। खूब साफ लिपे-पुते मकान। लोहे के चौड़े-चौड़े दरवाजे। उनके आसपास खुब खाली जगह होती। कोई घर ऐसा न था जिसमें रखी लाठी पर दो-चार तोले चाँदी न मढ़ी गई हो। हर महीने उन लाठियों को सरसों का तेल ज़रूर पिलाया जाता था। गाँव में वैसे दो-चार घरों में लाइसेंसी बन्दूकें भी थी। कुछ घरों में लाठियों के साथ बल्लम भी रखे होते। यूँ तो घोड़े पर चलने की परम्परा ख़त्म-सी हो गई थी। किन्तु बात-बात पर मूंछों पर हाथ जाने की आदत उनमें अभी भी बरकरार थी। कहा जाता है कि रस्सी जल जाए पर बल नहीं जाते। यही बात इस गाँव के ठाकुरों की थी।
ठाकुर औतार सिंह के यहाँ नई जोड़ी चढ़ाने का काम चल रहा था। बढ़ई जाति से हिन्दू था। वह लकड़ी के एक बड़े तख्ते पर रन्दा मारता जाता और साथ-साथ बुदबुदाता भी जाता। कोई आसपास न था। उसके भीतर किसी से बातें करने की खुजली-सी हो रही थी। तभी औतार सिंह का छोटा लड़का आया तो वह बोल उठा – “छोटे ठाकुर देखो तो इन ससुरों ने क्या उधम मचाया हुआ है…”
“क्या भला…?” छोटे ठाकुर पूछते हैं।
“कहते हैं कि हम अब मैला न उठाएँगे। भला सासतरों की बात कोई टाल सकता है क्या? सासतरों में तो यही सब लिखा है न।”
“लेकिन बुढ़ऊ… आजकल सासतरों की बात मानता कौन हैं…?” कुढ़ते हुए छोटे ठाकुर कहते हैं।
“तभी तो यह हाय-तोबा मची है। कोई छोटे-बड़े का भेद नहीं। पहले इन ससुरों की परछाई से भी दूर रहा जाता था। अलग खाना, अलग पीना। अब तो छोटे ठाकुर, सुना है शहरों के होटलों में एक ही कप में सभी चाय पीवै हैं। कितना बड़ा अन्याय, सारा धरम ही चौपट हो गया।”
बात आई-गई हो गई। किन्तु उधर धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। फूस में आग की तरह लपलपाती परिवर्तन की भावना दिन-पर-दिन जोर पकड़ती जा रही थी। ठाकुर की बहू को बच्चा हुआ। पर मेहतरों के टोले से इस बार कोई न आया। सभी मेहतरों की पंचायत हुई थी, जिसमें अधिकांश ने कसम उठाई कि मैला उठाने कोई न जाएगा, जो जाता है उसका हुक्का-पानी बन्द। यह कसम एक सप्ताह तक पूर्ण रूप से चली। किन्तु एक ही सप्ताह में गाँव में गन्दगी के जगह-जगह ढेर बनते चले गए। ठाकुरों की बस्ती में एक-दो ने मन में विचार किया, एक बार चलकर देखा तो जाए। लेकिन भला क्यों…? सदियों से चली आ रही बड़े कहलाने की मानसिकता ढह न जाएगी। क्या आज तक छोटे लोगों की देहरी पर कोई गया है…? उनका धर्म भ्रष्ट न हो जाएगा… अगर वे छोटे तबके के लोगों के यहाँ आने-जाने लगे तो उनकी मूँछें नीची न हो जाएँगी भला। जिनके बाप-दादाओं की लाठी के कभी धुआं उठता था। हज़ार-हज़ार लोगों की पंचायत में उनका हुक्म माना जाता था। अब यह सब कैसे हो सकता है…?
ठाकुर औतार सिंह सोचते थे – एक-आध हफ़्ते की तो बात है, ससुरे सब मान जाएँगे। लेकिन जब एक सप्ताह की जगह दूसरा भी बीत गया और कोई न आया, तो चिन्ता बढ़ने लगी। अगले दिन ठाकुर को भनक मिली। रोज़-रोज़ इतवारी के घर पर ही पंचायत होती है। उसका लड़का शहर से आया है। उसी का काम हो सकता है। दो-तीन कारिन्दे उधर से गुजरते थे। वहाँ से गुजरते हुए वे उचटती हुई निगाह मेहतरों के टोले की तरफ डाल लिया करते थे। अब वहाँ पहले से कहीं अधिक सफाई दिखाई पड़ती थी। जगह-जगह कूड़े के ढेर न लगे होते थे। नालियों में भी पहले जैसी बदबू न आती थी। पर ऊँची जात वालों के यहाँ गन्दगी बढ़ती जा रही थी। जगह-जगह कूड़े के ढेर दिखाई पड़ने लगे थे। कभी-कभी बस्ती के बेलगाम कुत्ते कूड़े के ढेर में मुँह मारते और उसे अधिक बिखेर देते। उन्हीं कूड़े के ढेरों पर रोटी के टुकड़े खा-खाकर कुत्ते आपस में लड़ते रहते। जहाँ कुत्तों की लड़ाई गन्दगी के लिए होती, वहीं गाँव में आदमियों का वाक्युद्ध गन्दगी डालने पर होता। सुबह-शाम खूब कहासुनी होती।
एक दिन ठाकुर ने अपना कारिन्दा भेजा। लेकिन उधर से बड़ा ही मुँहफट जवाब आया। इतवारी अपने कच्चे आँगन में बैठ हुक्का गुड़गड़ा रहा था। आसपास दो-चार सूअर बेफिक्री से घूम रहे थे। कभी उनमें से कोई भागकर इतवारी के पीछे छुप जाता तो दूसरा उसे ढूँढने का प्रयास करता। जब-जब दो-चार सूअर और आकर इतवारी के पास इकट्ठे हो जाते तो वह हे…हे करते हुए उन्हें भगाने का प्रयास करता और पुनः हुक्के की नली मुँह में डाल ढेरों धुआं उगलने लगता। तभी कारिन्दा आकर कहता है – “इतवारी तुझे ठकुर ने बुलाया है।”
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए ही इतवारी ने गर्दन घुमाकर देखा। सामने ठाकुर का कोई कारिन्दा खड़ा था। कारिन्दे के द्वारा किए गए सम्बोधन को सुनकर उसे बुरा-सा लगा। वैसे पूरे पचास साल से वह यह तू-तड़ाक की भाषा सुन रहा था। आज तक बुरा न लगा, लेकिन आज…? वह सदियों से संस्कारबद्ध गाँव के माहौल से परिचित है। ब्राह्मण का लड़का चाहे वह अभी ढंग से नाक साफ करना भी न सीख पाया हो, लेकिन साठ साल के बूढ़े तक उसे ‘पंडितजी पालागन’ कहकर आदर प्रकट करते हैं। इतवारी की उम्र पचास से ऊपर ही होगी और सामने खड़े कारिन्दे की अट्ठाइस के करीब। उम्र में आधे का फर्क, किन्तु जातिगत असमानता भला शिष्टाचार कहाँ निभाने देती है। आज उसे बहुत बुरा लगता है। तभी कारिन्दा पुनः कह उठता है – “इतवारी तुझे ठाकुर ने बुलाया है …।”
कारिन्दे के पहली बार कहने को इतवारी ने अनसुना कर दिया था। तब दोबारा कारिन्दे ने उसी लहजे में कहा तो वह उबल-सा पड़ा – “कौन ठकुर…?”
“गाँव में कौन ठाकुर है तुझे पता नहीं …?” कारिन्दा क्षण-भर में ही भभक उठता है।
“नइ, हमै कुछ पता नाहीं। अब कोई किसी की ठकुराहट नई चलती है, सब अपने-अपने घर में आज़ाद हैं।”
“क्या …?” कारिन्दा अब पूर्ण रूप से गर्मा गया था। उसे सपने में भी विश्वास न था कि इतवारी, जिसकी उम्र मैला ढोते-ढोते तथा दूसरों की जूठन खाते-खाते बीत गई, वह ऐसा भी कह सकता है। “मुझे ठाकुर औतार सिंह ने भेजा है….” कारिन्दा ने मूंछों पर अंगुली फिराते हुए कहा।
“हूँ, कह देना अब कोई नइ जावैगा। भौत दिन हो गए गुलामगिरी करते-करते।”
कारिन्दा को अब लाचारी में अपने स्वर का थोड़ा मुलायम बनाना पड़ता है, “इतवारी काम में कोई गुलामगिरी नहीं। तुम्हारे बड़े-बूढ़े भी तो करते थे और तुम्हारी उम्र इतनी गुजर गयी क्या तुमने यह काम नहीं किया…?”
“हाँ, हमारे बड़े-बूढ़े जब करते थे वो जमाना चला गया। भई, अव नया जमाना है, नई रोसनी आ गई है।”
कारिन्दा समझ न सका। नया जमाना, नई रोशनी वाली बात। इतवारी के द्वारा कहे गए शब्द उसे अटपटे-से लगे। मन किया कि एक ही लाठी में उसका काम-तमाम कर दे, लेकिन वह ऐसा न कर सका। वह उल्टे पाँव लौट आया। ठाकुर ने सुना तो खोपड़ी जल उठी उसकी। लगा दिमाग में जितनी भी नसें हैं वे आपस में जुड़ गयी हैं और वे अब फटी कि तब। वह गुस्से से बड़बड़ा उठा – “ससुरे चमार-भंगियों ने देखी कितना सर उठ रक्खा है …? दस-बीस साल पहले तो मुँह में ज़बान ही जैसे न थी और अब कहते हैं गाँव में कोई ठाकुर-वाकुर नहीं….”
“पास ही….” वही कारिन्दा, “सुना है, सहरों में तो होटलों में लोग एक ही कप में चाय-दूध पीवै हैं। सुना है वहाँ के मन्दिर में भी घुस जाते हैं ससुरे…. अब तो इनका ही राज है। सरकार ने भी तो सर चढ़ा रक्खा है ससुरों को।”
“शहर की बात दूसरी है पर हमारे गाँव में यह सब ना चलेगा…।” ठाकुर औतार सिंह हुंकार उठे।
उनकी विषभरी हुंकार जहरीले सर्प से कम न थी। ठाकुर ने वह जमाना देखा था जब उनके दादा बहुत बड़े जमींदार थे, कहते हैं सौ गाँव पंचायत में उनका हुक्म माना जाता था। अंग्रेज लाट साहब आते तो पहले उन्हें ही बुलाया जाता था। दरवाजे पर सैकड़ों कारिन्दों की फौज चौबीसों घण्टे खड़ी रहती थी।
“अब क्या होगा…?” कारिन्दा चुप्पी तोड़ता है।
“होगा क्या, मैं ही कुछ करूंगा। अपना रामवीर है ना भला….”
“हाँ-हाँ बड़े ठकुर हैं तो…” पुलकित होते हुए कारिन्दा हाँ में हाँ मिलाता है।
“अरे कल ही देखना, इन ससुरों को छठी का दूध न पिला दिया तो किसी ठाकुर का जना नहीं, भंगी का जना कह देना, सारी हेकड़ी भुला दूंगा, ससुरों का दिमाग सब ठीक हो जाएगा।”
दो-चार दिन लगातार धर-पकड़ हुई। मेहतरों की बस्ती से बीस-तीस को डकैती के केस में पुलिस ने बंद कर दिया। दो-चार लोगों के पास से हथियार बरामद भी कर दिए। एक दो जगह मुठभेड़ भी दर्ज हो गई, भला बिना मुठभेड़ के डकैतों को पकड़ा कैसे जा सकता था? लेकिन पुलिस ने यहाँ तनिक दरियादिली दिखाई कि मुठभेड़ में मरा कोई नहीं। रामवीर जो सीनियर इन्सपेक्टर था, उससे विशेष रूप में कहा गया था, खूब ठुकाई करना ससुरों की, अब ठुकाई कैसे न होती। रामवीर स्वयं ठाकुर था।
मेहतरों के टोले में जो कुछ मर्द बचे उन्हें भी अगले दिन जा धरा। संपूर्ण टोले को ही डकैत करार दे दिया गया। घरों में अब औरतें ही रह गई थीं, और बच्चे। एक दिन ठाकुर का कारिन्दा उधर गया और अपनी ठकुराई दिखाते हुए रौब से बोला – “ससुरी काम पर आ जाओ, जो तुम्हारा काम है वही करो। सारी लीडराई ख़त्म हो जाएगी, भूखी मरोगी…।”
बस्ती में जिसने सुना वही उबल-सी पड़ी। वे तो पहले से जली-फुंकी बैठी थीं। सारी मेहतरानियाँ एक हो गईं। उन्होंने मुँह से बात न की, झाड़ू से की। ऐसे समय पर झाड़ू ही उनका हथियार होता है। किसी का बेटा जेल में था तो किसी का भाई। भला कहाँ बर्दाश्त होती बात। ठाकुर के मुँह-लगे कारिन्दे को शोर मचाकर सात-आठ ने घेर लिया। जिसके जी में जितनी आई उतनी ही झाड़ू लगाई। कारिन्दे की लम्बी-लम्बी मूँछें थीं जो हाथों से ही उखाड़ दी गईं। बस्ती में एक रामदीन था। जिसे लोग मीला कहकर पुकारते थे। वह ना आदमियों में था ना औरतों में। यह सब देखकर उसे खूब प्रसन्नता हुई। जब तक कारिन्दा पिटता रहा, तब तक वह उछल-उछलकर खूब तालियां बजाता रहा।
एक सप्ताह में ही गिरफ्तार हुए सभी मेहतर छूट गए। शहर के किसी बड़े वकील ने जमानत की थी। बाहर से कुछ दलित लीडर भी आ गए थे। अगले दिन सभी कुछ दैनिक अख़बारों की सुर्खियों में था – “ग्राम मकदूमपुर के हरिजनों पर अत्याचार। ठाकुरों ने पुलिस से मिलीभगत करके डकैती के केस में फैसवाया।”
मिली-भगत तो थी ही। उधर रामवीर को लाइन हाजिर कर दिया गया था। वह सोचता आखिर किस मुसीबत में फंस गया…? सोचा कुछ और था, हुआ इसके विपरीत। उसकी योजना थी मेहतरों को सबक भी मिल जाएगा और हो सकता है उसे तरक्की भी मिल जाए! कौन इतनी जाँच-पड़ताल करता है…? डकैती का केस बनाया था। कोई छोटी-मोटी चोरी का नहीं। ऊपर हमारी बात तो अफसरों को माननी ही पड़ती, लेकिन यहाँ अफ़सरों की कौन सुने…? बात तो मिनिस्टर तक जा पहुंची थी। अब मिनिस्टर के सामने तो आई.जी., डी.आई.जी. की भी कोई बिसात नहीं। सभी हुक्म के गुलाम। अपने जीवन में उसकी यह पहली हार थी। अब तक न जाने कितने लोगों को झूठे केसों में फंसाया था।
पुलिस लाइन में उसे अतीत की बातें रह-रहकर याद आतीं। याद ही नहीं आतीं बल्कि रह-रहकर उसके मन को कचोटती रहतीं। वहाँ काम-वाम तो कुछ होता न था बस दिन-रात चारपाइयां तोड़ना और बेकार इधर-उधर घूमना। वर्दी वह अवश्य डाल लेता लेकिन वर्दी को देखकर रौब खाने वाला कोई न होता। क्योंकि चारों तरफ वर्दीधारी ही होते। बरबस ही हाथ की उंगलियां खुजाने लगतीं। डण्डा आखिर किसके जमाए। मुंह का स्वाद कसैला-सा हो चला था। किस कम्बख्त को गाली दे। यहां तो सभी गाली देने वाले लोग थे, गालियां सुनने वाले गरीब-गुरवा कहाँ थे?
शहर से जांच के लिए नगर डी.एस.पी. भेजा गया था। संसद में मामला उठ गया था। कमिश्नर के सामने डी.आई.जी., एस.एस.पी. सभी की पेशी हुई थी। गांव में लगातार दो-चार दिन पुलिस की गाड़ी दनदनाती रही। डी.एस.पी. के साथ एक एस.एच.ओ. भी था। उसी को इस गांव में एक महीने के लिए नियुक्त किया गया था। इसी गांव में रहकर उसे जांच रिपोर्ट देनी थी। ठाकुर की दाल न गली। वह रामवीर न था। एस.एच.ओ. ने खूब पेट भरकर डांट पिलाई। उसने भरी सभा में ठाकुर का पानी उतार दिया था। एक दिन उसने डण्डा घुमाते हुए कहा था -“ठाकुर पुराने दिन लद गए। अब तुम्हारी ठकुराहट न चलेगी। जिनको तुम अब तक छोटा समझते रहे, वे अब छोटे नहीं। आजाद भारत में सब बराबर हैं।”
बाद में पता चला, एस.एच.ओ. कोई दलित जाति से था। उस दिन गांव में खूब कोहराम मचा। एक अदना-सा इन्सपेक्टर उन्हीं के घर आकर बेइज्जत कर जाए।
सूरज ढलने के साथ-साथ का झुटपुटा घिर आया था। अंधेरे की लकीरों में बस्ती डूबने लगी थी। आज मेहतरों के टोले में कच्ची शराब और सुअर के गोश्त की गंध दूर-दूर तक फैली हुई थी। लोग पी-पीकर इधर-उधर गिर पड़ रहे थे। फिर भी हाथ की बोतल छूटती न थी। मांस के मसाले लगे टुकड़े लपा-लप मुंह में डाले जा रहे थे। जिन्दा सूअर मरे हुए सूअर के मांस को सूंघते हुए शू-शें कर भाग-दौड़ कर रहे थे। अंदर मेहतरानियां ढोलक बजा रही थीं। लगता था, उन्होंने भी पी थी। आज जी भरकर मनपसंद गाने गाए जा रहे थे। कभी बारात में भी गाने का मौका न मिला होगा। नशे में ढोलक पर उल्टी-सीधी थाप पड़ रही थी। एक गाना खत्म होता तो दूसरा तुरंत शुरू हो जाता। हर कली में नयापन। कभी-कभी कुछ जवान औरतें अपने बीच बैठी जवान लड़की को छेड़ बैठतीं और वे तब तक छेड़ती रहतीं जब तक वह बेचारी तंग होकर वहां से उठकर भाग न जाती। आज उनके बीच अजीब उल्लास था। उनके पांव थिरक रहे थे।
मर्द एक-दूसरे को खूब गालियां बक रहे थे। जैसे अपनी खुशी जाहिर करने के लिए उनके पास इसके अलावा कोई और चारा न रहा हो। आज उनके मन की हुई थी। शहर से एक-दो लीडर भी आए हुए थे जो खा-पीकर चले गए थे, किन्तु उनका पीना अभी तक बंद न हुआ था। गांव की ही कच्ची तोड़ी गयी शराब थी। दूसरा घड़ा भी खाली होने को था। एक आदमी मिट्टी के कुल्हड़ से उनके बर्तन में शराब उंडेल रहा था। बर्तन भी क्या – किसी के पास सिल्वर के गिलास थे तो किसी के पास पीतल के। कोई कटोरी में ही डालकर पीने में मस्त था।
चौपाल पर गैस रखी थी। एक-दो खाट उल्टी पड़ी थी। पास ही मिट्टी के हुक्के। इधर-उधर अपने बड़ों की नकल करते हुए कुछ बच्चे। काफी रात गए तक ढोलक बजती रही। ढोलक बजाती मेहतरानियां गाने के साथ-साथ उछल-कूदकर एक-दूसरे के ऊपर गिर पड़ रही थीं।
रात ढलने के साथ-साथ नशीली होती जा रही थी। मेहतरों के टोले में धीरे-धीरे शांति छाने लगी थी, पर उधर शांति न थी। ठाकुर औतार सिंह और अधिक चोट बर्दाश्त न कर सकता था। आज तक किसी ने उनकी इतनी बेइज्जती न की थी। उनकी रगों में खून के साथ-साथ जैसे कांच के टुकड़े भी तैर रहे थे। बार-बार जिनके टकराने से टीस पैदा होती थी। ठाकुर की आंखें अंगारे के समान दहक रही थीं। लगता था जैसे कहीं से आग के दरिया का सैलाब टूटकर चला आया हो और उन आंखों में आकर सिमट गया हो। सामने दीवार पर एक खूंटी के सहारे लोडेड बन्दूक टंगी थी। उसका मन चाह रहा था एक-दो को इसी बन्दूक से चुनचुनकर मारे, लेकिन चाहकर भी वह ऐसा न कर सकता था। क्योंकि एक बार बाजी पलट चुकी थी। ठाकुर सोच रहा था। ऐसा कुछ हो जाए जो सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। उसकी सांसों से किसी भयानक षड्यन्त्र की बू आ रही थी।
आधी रात का समय रहा होगा। मेहतरों के टोले में आग की लपटें देखी गईं, जो लपलपाती हुई ऊंची होने लगी थीं। शराब में धुत्त किसी को होश न था। जब होश आया तो वे सब कुछ गंवा चुके थे। किसी के चार सूअर थे, तो चारों ही झुलस गए थे। बच्चों तक को आग ने माफ न किया था। कितनी ही औरतों के गोरे शरीर जलकर बदरंग हो गए थे। बस्ती में कोई घर ऐसा न था जिसमें कोई न मरा हो। बस्ती जैसे किसी आग की घाटी में बदल गयी थी। आग की चिंगारी के साथ-साथ कोलाहल भी इधर-उधर बिखर गया था। लेकिन उस कोलाहल का कोई अर्थ न था क्योंकि कोलाहल करने वाला समाज अर्थहीन था। जमीन पर रेंग रहे किसी बेजान-से कीड़ों की तरह। धीरे-धीरे कोलाहल शान्त हो गया। और अब रह गया है केवल हड्डियों को चीर देने वाला सन्नाटा।
फिर सन्नाटे को चीरती हुई कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। सब लोग चौंककर उन आवाज़ों को सुनने लगे। रात के दूसरे पहर में जहां लोग गीली आंखें लिए आकाश की ओर निहार रहे थे, वहीं नई पौध की आंखों में परिवर्तन के लिए अटूट विश्वास था। कल तक जो बच्चे जूठन पर लड़ते-झगड़ते थे उनके मन में कुछ कर गुजरने की चेतना जन्म ले चुकी थी।