बादल होता नाव
उसमें बैठकर मैं घूमता आकाश सागर में
जब मन करता उतरता बूँदों के पैराशूट से
गिरता समाता मुँह खोले बैठी धरा पर
उगता फिर फ़सल बन
दमकता फिर गेंहू की बालियों में सोने-सा
पूरा करता किसी की ज़रूरत

उड़ता फिर किसी दाने में
बुव जाता किसी निर्जन में
बसाता नयी सभ्यता

बहने लगती कोई नदी वहाँ
प्रेम बारिश के धागे का स्वाद पहने

दिखता प्रतिबिम्ब जिसमें आकाश सागर का
और बादल नाव में बैठे मेरे जैसे किसी और का
जिसने बस खोल ही लिया है
कुछ नयी बूँदों का पैराशूट
और निकल पड़ा है नीचे बहती नदी का
गंगजलीय आचमन करने।

Previous articleअपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्री
Next articleगाँव में गुंवारणी का आना
अनुराग तिवारी
अनुराग तिवारी ने ऐग्रिकल्चरल एंजिनीरिंग की पढ़ाई की, लगभग 11 साल विभिन्न संस्थाओं में काम किया और उसके बाद ख़ुद का व्यवसाय भोपाल में रहकर करते हैं। बीते 10 सालों में नृत्य, नाट्य, संगीत और विभिन्न कलाओं से दर्शक के तौर पर इनका गहरा रिश्ता बना और लेखन में इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति को पाया। अनुराग 'विहान' नाट्य समूह से जुड़े रहे हैं और उनके कई नाटकों के संगीत वृंद का हिस्सा रहे हैं। हाल ही में इनका पहला कविता संग्रह 'अभी जिया नहीं' बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here