कस्बे के अंदर सर्वथा निश्चित कुछ थोड़े-से कार्यक्रम थे। इनमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता था। खूब आराम के साथ सुबह होती थी और उतने ही आराम से दिन का पटाक्षेप होता था। कुछ छोटी-छोटी दिलचस्प बात थी और कुछ दुर्लभ लोग भी लेकिन उनका विकास के साथ नाता नहीं रह गया था, इसलिए हमें अपना प्रदेश बीमार, सिकुड़ता हुआ और वास्तविक दुनिया से भिन्न लगने लगा था। यह वास्तविक दुनिया क्या है, इसकी कुछ बिखरी हुई अफवाहें हमारे पास बाहर से आया करती थीं। अधिकांश लोग अपनी रोजमर्रा जिंदगी में सोए हुए-से चुपचाप और शांत चल रहे थे। उन्हें अफवाहों से सरोकर नहीं था और न उनसे किसी प्रकार का विलचन।

कस्बे में मनोहर सबसे अधिक परेशान, बेचैन और उत्पीड़ित युवक था। वह ख्वाबों में डूबा रहता। ख्वाबों ने उसे तमाम लोगों के लिए बेहद अटपटा बना दिया था। मनोहर के लहू में बेकरारी थी। कस्बा निहायत गंदा था। मक्खियों, धूल उड़ाती गाड़ियों और विश्राम करते हुए लोगों का साम्राज्य चारों तरफ फैला था। लोगों ने मृत्यु पर अपने तरीके से विजय प्राप्त कर ली थी। मनोहर लोगों से जबरदस्ती भिड़ जाता जब कि लोग लड़ना नहीं जानते थे। वे केवल दुनिया समझे हुए क्षमाशील लोग थे। वह कहता बाहर निकलो, वहाँ एक अग्रगामी संसार है। लोग मूड़ हिलाकर हाँ करते और हुक्का गुड़गुड़ाने लगते।

अधिक से अधिक यह होता कि उसकी भाषा को विस्मयपूर्वक सुनते थे। उसे पता भी चल गया था कि उसकी भाषा को केवल सुना जा रहा है। इतना मनोहर को बदहवास कर देने के लिए काफी था। वह वातावरण को झनझनाहट से भर देता था। फिर अपने कमरे में बंद, एक पराजित निद्रा में गुप्त हो जाता। परम किस्म के लोग मनोहर के साथ बुद्धिमत्ता का व्यवहार करते यानी उसे केवल करुणाजनक तरीके से देखते रहते।

अपने एकांत में मनोहर एक चतुर व्यक्ति था। वह उधेड़बुन में रहता और उसे इंतजार के लाभ भी ज्ञात थे। उसे भरोसा था, कभी न कभी यहाँ से निकलना जरूर होगा, यह दूसरी बात है कि इस निकलने में देर हो रही है। अपनी जानकारियों के मुताबिक वह जी-तोड़ प्रयत्न कर रहा था और दूसरी तरफ कस्बे के हलाहल से भी सावधान था।

गर्दिश-भरे एक लंबे समय के बाद एक दिन वह मेरे पास अपनी गर्वीली मुद्रा लेकर पहुँचा। उसके बताने के पूर्व ही मुझे अंदाज हो गया। उसने कहा, “आज मैं पहली बार खुश हुआ हूँ। मैं जैसे बंदीगृह की यातना से रिहा होने जा रहा हूँ।”

वह आखिर तक रोष में था और कस्बे के प्रति नफरत में। शहर में उसे कोई वांछित काम मिला था। मनोहर के जाने की खबर से मैं अधिक खिन्न नहीं हुआ, एक अहम्मन्य व्यक्ति से हमारे समाज ने निजात पा ली। उसकी गालियाँ अभी भी लोगों के स्मृति-कोष में रखी हुई हैं। मुझे याद है, मैं भूल नहीं सका कि वह अपनी जगह को पिछड़ी और मरी हुई कहकर चला गया।

वह एक नीली और बजती हुई बस में बैठकर गया और बाद में पीछे के कच्चे रास्तों पर धूल देर तक और दूर तक जमी रही। मैंने धूल को बहुत देर तक नहीं रहने दिया। एक आहत व्यक्ति की तरह मैंने सपाटे से धूल को खत्म करके अपना काम शुरू कर दिया।

मैं सुस्त नहीं पड़ना चाहता था। अगर मैं बारीकी से पड़ताल करूं तो संभव है यह नतीजा निकले कि जिस दिन मनोहर गया, उसी दिन मेरे अंदर भी एक विस्फोट हुआ- एक शांत विस्फोट। मैंने पाया, मैं मनोहर का पीछा कर रहा हूँ। थोड़ी देर तक यह पीछा चलता रहता है, फिर गड़बड़ हो जाता है। मैं बराबर सोच रहा हूँ कि एक उबलते हुए युवा-काल में इस आदमी ने अपनी यात्रा इतने भोले और असभ्य तरीके से क्यों शुरू की? यह प्रश्न मेरे अंदर लगातार टपकता रहा। यह मेरी विचित्र तबीयत है कि जिन लोगों पर मुझे शक हो जाता है, उन्हें मैं छोड़ नहीं पाता। उनकी पूरी कलई मेरे लिए जरूरी हो जाती है।

जब मनोहर अपना प्रदेश छोड़कर बाहर गया, मौसम की दृष्टि से वे गजब दिन थे। बस्ती से थोड़ा बाहर जाने पर दिखता- नदियाँ खलबला रही हैं और सफेद हो गई है। वृक्ष सीझे हुए हैं और जंगलों से भीगी हुई हवाओं की आवाज आ रही है। धरती हमेशा जैसी आतुर थी और लोगों …लोगों की कुछ मत पूछिए। मुझे हैरानी हुई कि धधकती हुई दुनिया को इतनी आसानी से छोड़कर वह चल कैसे दिया। अपनी जगह बेमिसाल होती है और आदमी टूटा हुआ पत्ता नहीं है, यह बात मनोहर अपनी पकी अवस्था के बावजूद क्यों नहीं समझ सका?

मनोहर को छोड़ना, छूटने की करुण जैसा नहीं लगा। छोड़ना, छप्पर और पेट की मजबूरियों में उजड़ जाने जैसा भी नहीं था। वह गुमनाम लोभ से पराभूत, अज्ञात दुनिया के प्रति चमत्कृत एक बेबुनियाद भागमभाग थी। हद तो यह थी कि वह अपनी जगह पर लौटकर एक बार थूकने तक को तैयार नहीं था। उसकी भाषा का यह बिच्छूपन लोगों को जलाने के लिए फेंका जाता था लेकिन लोगों को अपने चक्रव्यूह के अलावा किसी प्रकार की भी फुरसत नहीं थी। मैंने अपने को डंक से बचाने की कोशिश की।

मनोहर का कहना था, वह जीने के लिए प्रदेशों और लोगों की तलाश करने के लिए बेकाबू हो गया है। कस्बे में रोमांच मुर्दा हो गया है। यह एक नितांत मनोरंजक घोषणा थी जब कि सच्चाई यह थी कि उसने मूलतः जीने से ही इनकार कर दिया था।

मेरी माँ ने, घर के नाऊ ने, पुराने मास्टर साहब ने, पंडित और पोस्ट मास्टर जी ने, यहाँ तक कि उस ड्राइवर ने भी जो बस में बैठकर मनोहर को एक दिन कस्बे के बाहर छोड़ आया था, बारंबार मुझसे यही कहा, “छोड़ो भइया, अपना काम करो, सीधी राह चलो, दुनिया ऐसी ही है। इस भुरभुरे तरीके से रहोगे तो जवानी के जाने पर केवल पछतावा ही हाथ आएगा। बेहतर है, पैसा जोड़कर एक साइकिल ले लो और मौका लगे तो जमीन का एक टुकड़ा।”

लोग बेहद शरीफ थे। वे जो कुछ भी कह रहे थे वह बरसते हुए प्यार जैसा था। मुझे गुस्से का अनुभव हुआ पर मैंने कभी गुस्सा नहीं किया। फिर मैं अपना काम तो कर ही रहा था। मैं मनोहर की गरदन घोंटने का इरादा नहीं रखता था। मैं उसे लंगी भी नहीं मार रहा था। मैं उससे कभी नहीं उलझा। मुझे केवल आदमी और समाज का तालमेल समझना था। मैं नौकरी की अर्जियाँ भेजता रहा और पढ़ता रहा। मैंने लोगों का दिल नहीं दुखाया लेकिन अंदर-अंदर मैं माना नहीं, अपने ही मार्ग पर चलता रहा। लोगों को पता नहीं था कि मेरे अंदर किस किस्म का आदमी बन रहा है। मैं विद्रोही नहीं था। मेरा मार्ग नितांत सड़ियल, भाग्यशून्य और आम था। मैंने अपने मामूली जीवन को बस केवल चौकन्नी पहरेदारी के अंदर जिलाए रखने की ही तमन्ना की थी।

हमारे कस्बे के साधारण लोक भयानक रूप से जूझने के बाद भी मधुर थे। माताएँ अपनी दसवीं संतान को भी इस ताब के साथ प्यार करती थीं कि लगता उनका पहला बच्चा है। इन प्यारे और भोंदू लोगों को यह नहीं पता था कि अभिनेता का चक्कर जान लेना अनुसंधान की तरह एक आश्चर्यजनक और आह्लादपूर्ण कृत्य है। मैं एक पुख्ता आदमी बनने की अभिलाषा लेकर पिछले पच्चीस वर्षों से कछुआ बना हुआ हूँ। इस बीच अपनी जगह को छोड़कर अनगिनत लोग चले गए। इनमें से कितने ही वे लोग जिन्हें दुनिया की रफ्तार ने अवाक् कर दिया और फिर शहर चले जाने के अलावा उनके पास दूसरा कोई भी रास्ता नहीं था।

गतिवान लोगों का यह अनुभव (जी हाँ अनुभव, क्योंकि निर्णय करने के लिए किसी भी सामाजिक-राजनीतिक दर्शन से पूरी सहायता ले सकने में वे असमर्थ हैं) है कि मैं जैसे-तैसे पच्चीस वर्ष पहले की ही स्थिति में पड़ा हुआ हूँ। मैं हिल नहीं रहा हूँ और मुझे अपनी उबासी-भरी दुनिया से मोह है।

वास्तव में हमारे बहुत से साथियों में तमाचा खाकर भी विचलित न होने की अद्भुत कुव्वत थी। वे कदम मिलाने के लिए बौखलाए हुए दौड़े चले जा रहे थे। इसलिए यह मान लेना मूर्खता होगी कि उन्होंने अपने समय के सभी लोगों को जान लिया गया है। मैंने तय किया मैं शंकास्पद स्थिति में नहीं रहूँगा। मुझे इन लोगों के बारे में अपने इस यकीन को खोजना है कि ये जीवन की अटूट श्रृंखला को तोड़ने की घात में लगे हुए हैं।

धीरे-धीरे मनोहर को गए एक वर्ष बीत गया। मेरी नौकरी नहीं लगी और मुझे लगा कि अब सड़ जाने, निर्जीव हो जाने में अधिक देर नहीं है। यह समय मेरे ऊपर कसाई के चाकू की तरह चल रहा था। मुझको लगा मैं डगमगा जाऊँगा। इस बीच दिल्ली शहर से मनोहर की खबरें आने लगी थीं। ये खबरें मनोहर के पतन की नहीं थी। मेरी बातों पर से लोगों का भरोसा उतरने लगा। लोगों का मूड यह था जैसे मुझे क्षमा करने पर उतारू हों। एक बार गजट में मनोहर का फोटो भी आया। उसमें वह मोटा-ताजा लगता था। गजट सारे कस्बे में घूम रहा था। गजट बिलकुल मैला और जर्जर हो गया था। फिर भी लोग उसे देख रहे थे। देखते थे और बातें करते थे। वे मनोहर के रंग पर खुश थे।

माँ ने मेरी तरफ उदासी से देखा। उस वक्त मैं भी गजट में मनोहर का फोटो चोरी से देख रहा था। उसने कमजोर आवाज में बताया, “लोग कह रहे हैं, मनोहर ने दिल्ली शहर पर अपना झंडा गाड़ दिया है।”

जब कहीं कोई तिनका नहीं मिला, कहीं कोई किरण नहीं दिखी तो मनोहर ने मुझे एक छोटे-से काम के इंतजाम के बारे में लिखा। मुझे मालूम पड़ गया कि मेरे पिता ने उसे गिड़गिड़ाकर लिखा था। उसके काम और मेरे काम में राजा और भंगी…. जैसा फर्क था! इसके पहले कि मैं निश्चित होता, उसने मुझे तपाक से कहा, “देखो, यह दिल्ली है, बहुत ऊँचा शहर, यहाँ अपना गँवई रांगड़पन मत दिखाना। यहाँ बड़े-बड़े लोग एक मिनट में चलते-फिरते नजर आते हैं।”

उसने मुझे उस समय तक साथ रखा जब तक उसकी शान की समस्त स्थितियों से मैं परिचित नहीं करा दिया गया। बाद में उसने कहा, “अपना बंदोबस्त खुद करो और कभी-कभी आ जाया करना।”

जब तक मैं उसके साथ था, वह हर थोड़े समय के बाद मुझे बता दिया करता था कि मैं कभी न भूलूँ, यह दिल्ली है। पता नहीं वह मुझे आतंकित कर रहा था या सावधान और मैं एक बेहया की तरह मन ही मन हँसता रहा। मेरी हँसी का यह तात्पर्य नहीं था कि मैंने शहर पर काबू पा लिया है। मैं एक छोटी जगह का बाशिंदा था, मैं केवल सीख सकता था। मेरी हँसी की वजह दिल्ली का तकिया-कलाम था। आए हुए मुझे मुश्किल से कुछ महीने हुए थे।

मनोहर ने जो भी किया, वह संभ्रांत होता गया। लेकिन वह बेहद संतुलित था। उसने गरीब और साधारण लोगों के प्रति अपनी दिलचस्पी कभी नहीं छोड़ी। टैक्सी वाले से वह जैसा बर्ताव करता, वैसा भाईचारा आजकल केवल समझदार लोग ही कर सकते हैं। वह चाँदनी चौक जलेबी खाने जाता और दुकानदार से चीनी की कालाबाजारी की पूछताछ करता था। वह मुझे पुराने निजामुद्दीन की गलियों में तंग हालत में पड़े लोगों की तसवीर दिखाने ले गया। उसने मुझे सारे नर्क धीरे-धीरे दिखा दिए। लेकिन वह मुझे अंतरर्राष्ट्रीय चकाचौंध के स्थानों पर साथ नहीं ले गया। भव्य और आभिजात्य की जगहों में उसके साथी दूसरे हुआ करते थे। वह मुझे लाल किले के मैदान में अक्सर ले गया। यहाँ मुझे अपने कस्बे जैसा लगता था। वह मनोहर की सूक्ष्म बुद्धिमानी थी। मैदान में बैठकर हम मूंगफली खाते, उड़ती हुई पतंगों को देखते और अपने कस्बे की बातें करते।

वह कस्बे पर बहुत दया दिखाता था। सब कुछ हो जाने के बाद वह रूमाल झाड़कर उठ खड़ा होता, मुझे बस में ढकेलकर चला जाता। मुझे पता था अब वह सीधे ‘ला बोहीम’ में जाएगा। मैंने उसके पास कभी हँसना पसंद नहीं किया और न उसके बर्ताव से अपमानित अनुभव किया लेकिन क्या मैं इतना भी नहीं समझ सकता था कि वह व्यक्ति भेदी और चालाक है।

मनोहर की असलियत सूँघने, महसूस करने के बावजूद मैं उस पर आक्रमण नहीं कर सकता था। अभी मेरे पास कानूनी दुनिया को प्रभावित करने वाले प्रमाण नहीं थे। परदा उठाने की घंटी बजने में अभी पता नहीं कितनी देरी थी। मैंने अपना समय गँवाया नहीं। मैं किसी भी प्रकार के बौद्धिक समारोह में शामिल नहीं हुआ। मैं ऐसे अवसरों के लिए नाकाबिल और अटपटा था। मैं अपने परिवार समेत इस फिजूल के शहर पर चिपका हुआ था। मुझे नौकरी करनी थी, बच्चे पालने थे और थका देने वाले इन टिटम्मों के साथ-साथ एक अटूट आदमी की परीक्षाएँ भी देनी थी।

देखते-देखते, प्रस्तुत समय पर मनोहर खिंचे हुए रबड़ की तरह फैल गया। वह गुणनफल की तेजी से बढ़ता जा रहा था। वह गदरा रहा था। उसका कस्बे वाला ठूँठ अब लापता हो चुका था। मैंने उसे अधिकतर ऊंचाइयों और शाम में जगमगाते देखा। रेस्तराओं में वह हमेशा ही लोगों से घिरा हुआ होता। उसको देखकर लगता था कि वह नगर का मौलिक व्यक्ति है या मूल व्यक्ति।

मुझे या मुझ सरीखे, खुरदुरे लोगों को ऐसे स्थानों पर देखते हुए उसकी आकृति मुद्राओं के तमाशे में व्यस्त हो जाया करती थी गोया आइसक्रीम खाना केवल एक बहाना है। असल चीज है उसका डूबा हुआ वार्तालाप, समाज-चिंता और सतत रहने वाली एक राष्ट्रीय परेशानी।

वह किसी भी अवस्था में बैठा हो, यही लगता है वह मंच पर सक्रिय है। मैं समझ गया, वह गुसलखाने में भी अशांत रहता होगा, और हाथ-पैर फेंकने, मुट्ठियाँ कसकर, जबड़े भींचकर कुछ बोलने के बाद ही एक लोटा पानी बदन पर डालता होगा। रजाई के गूदड़ से बना हुआ यह पुतला देश के मंच पर उस समय बेपनाह बिजली पटक रहा था। उसने साहित्य को धर्मकाँटे में तबदील कर दिया। दूध का दूध और पानी का पानी। उसकी कविता में तुक बेहद नुकीले और भोंक देने वाले थे।

टटोलते-टटोलते एक ऐसा समय आया जब मनोहर ने इंसानियत-संपन्न आवाम की नाड़ी पकड़ ही ली। उसने नाड़ी छोड़ी नहीं। उसकी सीख यह थी कि मैं आम आदमी हूँ और उसे खोजने के लिए भटक रहा हूँ। मैं यह कहने की तीव्र इच्छा रखता था कि लोगों, सावधान, अपनी आस्तीन झटको लेकिन मैं केवल अपने को ही सावधान बनाने के अलावा कुछ नहीं कर सका।

मनोहर का गणित लाजवाब था। उसको डर भी कुछ नहीं था क्योंकि उसके आगे-पीछे एक अच्छा-खासा ‘अहो-अहो’ दल था। ये सभी लोग अपनी छाती पर ‘हाय मानवता का दर्द’ और मुँह में लोकतंत्र की चूसनी लिए हुए थे। उन्होंने मनोहर को उस ऊँचाई तक पहुँचा दिया जहाँ जिंदगी बेयरा की तरह उसके कटोरे में शोरबा परोस रही थी।

मैं कुछ नहीं कर सकता था। लोग मेरी चटनी बना देते। मुझे यकीन था कि सुबह होने के पूर्व ही यह व्यक्ति गठरी बाँधकर चल चुकेगा, लेकिन सच्चाई का रत्ती भर भी सामाजिक लाभ मैं नहीं उठा सका। मनोहर ने बुद्धि का योग साध रखा था। मेरे किस्म के शक्तिशाली लोग भी उसे रँगे हाथ नहीं पकड़ना चाहते थे।

जब शहर की जानकारी मुझ पर काफी खुल गई तब पता चला, यहाँ का क्या मामला बेहद संगीन है। लगता था होश उड़ जाएगा। यहाँ बला के सुंदर बटन और उनकी तिलस्मी चाल-ढाल से भरे स्थान थे। शीशे पर तैल आकृतियों जैसी बिछलती रोशनी थी और थी बिगाड़ने वाली नशीली महक। चित्रकार रंगीन कीचड़ की दुर्घटनाओं में थप-थप कर रहे थे। कूकते कवियों, पोथा लिक्खाड़ों, स्निग्ध अखबारनवीसों और शीर्ष बुद्धिजीवियों का भी एक झुंड था। इन सबके पास अपनी-अपनी जगहें थी। ये सब लोग स्वतंत्र थे और इन्होंने लड़ाई-झगड़े को साफ कर दिया था। कदम-कदम पर ऐसा संगीत प्रसारित होता मिलता कि आश्यर्च होता था, आसपास पौधे कैसे जीवित हैं और खिड़कियों के काँच क्यों नहीं चटख गए हैं।

मैंने ऐसी अमीरी कभी नहीं देखी थी। न उसकी अफवाह ही सुनी थी। एक मजेदार बात पर वहाँ मैंने यह भी गौर किया था कि श्रेष्ठियों की नौजवान संतानें अपने ही घर में सेंध लगा रही हैं। इस बात से मैं खुश भी हुआ, यद्यपि यह खुशी अस्वस्थ और जहरीली थी। इन श्रेष्ठी पुत्रों ने माया का हैरतअंगेज खेल किया हुआ था। इन्हें कोई रोक नहीं सकता था, ये आत्महत्या पर उतारू हो चुके थे।

इस प्रकार नगर पर वनमानुषों ने कब्जा कर रखा था। गनीमत महज़ इतनी थी कि भौगोलिक दृष्टिकोण से यह शहर के एक थोड़े और अलग हिस्से पर ही काबिज थे। बकाया पूरा इलाका गरीबों और मेहनतकशों का था।

मैं शहर के गुलजारों से कई बार हँसते-हँसते वापस हुआ। मुझे फूँक-फूँककर चलना पड़ता था। अनगिनत बार इस कठोर अनुशासन की वजह से दिल मलाल में डूबा और चेहरे पर भुखमरी छा गई लेकिन फिसलन के ऐसे खराब वक्त में दिमाग ने एक खास किस्म से मुसकराकर शहर के गुलजारों का चिट्ठा खोल दिया। दिमाग के अलावा जो दूसरी बड़ी बात थी, वह थी रकम का टोटा। इस टोटे ने दिमाग से कहीं ज्यादा शक्तिशाली कवच का काम किया।

मैं शहर के मांसल सैलाब में गुडुप हो गया होता या पूँजी चमत्कार के बारे में चिर गया होता तो मुझे लगता मेरा चेहरा काला है। हर हालत में मेरी आंखों पर धुंध होती और कुछ समय बाद पेट पर तोंद। पच्चीस-तीस साल का नौजवान इस देश में अगर फूले हुए पेट का रोगी हो तो आपको उस पर शक करने का पूरा हक है।

मनोहर पर मुझे इसलिए शक है। मेरी पत्नी मुझे कई बार टोक चुकी है, आखिर तुम मनोहर से इतनी खार क्यों खाते हो। हजारों लोग लकदक की तरफ भाग रहे हैं पर उसी बिचारे के पीछे पड़े रहने की बात मुझे तो समझ नहीं आती।

मैं अपना अलग ही बड़बड़ाता रहता हूँ। इसने अपनी गरीबी छोड़ दी, अपने घर को लात मार दी। फिर भी मैं गुमसुम और उदास हुआ। मुझे पता नहीं क्यों उम्मीद थी कि मनोहर अपने दिमाग का सदुपयोग करेगा लेकिन वह सीधा मुनाफे की तरफ चला गया। उसने ज्यों-ज्यों अपनी गृहस्थी सजानी शुरू की, वह तिकड़मी होता गया और उसकी अभूतपूर्व आक्रामकता की गरदन टूटती गई। उसकी आवाज जब मुरमुरे के थैले की तरह बजने लगी तब उसने पैंतरा बदला।

मनोहर ने पैंतरा बदला। इस सब कुछ चलते समाज में वह पैंतरा, अँधेरे बिस्तर पर शरीर की खामोश करवट जैसा नामालूम था। मनोहर स्थूल होता जा रहा था, गोल-मटोल और थुलथुल यद्यपि और मनोहर पुकारना बड़ा अटपटा लगता था फिर भी उसके नाम का बैंड बजता जा रहा था।

इस बीच सौभाग्य से मनोहर-मंडली में अपने समय के लिए सर्वाधिक छंटे हुए बुद्धिजीवी का आगमन हुआ। वह दुनिया घूमा हुआ एक कमसिन नौजवान था लेकिन लोकतंत्र के श्वान ने उसे ऐसा काटा कि उसकी कमसिनी चक्कर में आ गई। जब वह भूँकने लगा, लोगों को आश्चर्य हुआ कि पैंतीस वर्ष तक चिकना रहने के बाद कोई भी व्यक्ति एकाएक कैसे भूँकने लगा। क्या कमसिनी उसका अभ्यास थी? अगर हाँ, तो वह इस व्यक्ति की आश्चर्यजनक उपलब्धि है।

इस व्यक्ति का नाम था सोमदत्त। मनोहर की तुलना में सोमदत्त काफी दुबला था। वह कोमल, कबूतर जैसा, नीली आंखों वाला, कलाकार लगता था। मेरा अनुमान था, बाहर से नितांत भिन्न लगने वाले ये दोनों व्यक्ति अंदर से एक ही प्रकार के मनुष्य या गिद्ध हैं। इनकी ऊपरी भिन्नता इनती अधिक थी कि जैसे टेबल की एक तरफ गंजी खोपड़ी रही और दूसरी तरफ केश सजा मस्तक।

मैंने गौर से देखा, सोमदत्त के बदन के खुले हिस्सों पर कहीं कोई जख्म या फुसी-फोड़े का दाग नहीं था। यह मेरी बचपन की धारणा थी कि केवल राजा-रानियों, परियों और राजकुमारियों का शरीर बेदाग होता है। उसकी मांसपेशियाँ उभरी नहीं, निद्रित थी, तनाव केवल उस थोड़े समय चालू होता जब उसे भूँकना होता। उसके वस्त्रों पर धूल नहीं थी, तिनके नहीं थे और न सिकुड़न। सुना यह जाता था कि इस व्यक्ति की प्रेमिकाएँ हाँगकाँग से लंदन के बीच फैली हुई हैं। मैं सोमदत्त के अंदर प्रेमी की सौभाग्यपूर्ण हलचल को खोजते-खोजते थक गया। वह कौन सा जीवन-नुस्खा है इसके पास, जिसने इसके सभी दु:ख मार दिए हैं और यह सफलता की गर्द को स्वाद के साथ चाट रहा है। मैं हैरान था पर इसके अलावा और क्या हो सकता था कि सोमदत्त बुद्धिमत्ता का सफल आधुनिक मौला होता जा रहा है।

मनोहर का ताजा हाल यह था कि वह अब केवल अनिवार्य किस्म की ही शारीरिक हरकत करता। वह सूत्रों में बोलता और प्रश्न-उत्तर के जंजाल से बाहर उदासी के साथ विश्राम करता रहता। यह उदासी किसी खास किस्म का गड़बड़झाला नहीं थी। यह मनुष्य के अंत की उदासी थी। कई प्रेम, कई भरे हुए अलबमों, कई साक्षात्कार, कई उद्घाटन, कई अध्यक्षताएँ, कई बार टेलीविजन और कई डेलीगेशन के बाद उसने समझ लिया, जल्दीबाजी की जरूरत नहीं। जीवन की एक-दो सफलताएँ, एक-दो उद्देश्य ही बाकी बचे हैं जबकि उम्र बमुश्किल अभी आधी भी नहीं ढली।

सोमदत्त हवाई जहाज से उतरकर एयरोड्रोम से बाहर आया। एक क्षण के लिए ठिठका। इतने बड़े मुल्क में, मुझे लेने आने वाला क्या एक भी व्यक्ति नहीं है। जबकि उसे जानने वालों की संख्या इस समय एक लाख से भी अधिक हो सकती है। लेकिन, मेरे आने की खबर किसी को नहीं है, यह सोचकर वह एक क्षण में पूर्ववत् हो गया। हवाई अड्डे की औपचारिकताएँ निबटाकर उसने टैक्सी ली। उसका कोई घर नहीं था। उसके पास केवल पासपोर्ट और वीसा के बंधन थे। वह कहीं भी बो सकता था, कहीं भी उग सकता था, कहीं भी काट सकता था। उसकी पुकार थी, भूगोल और राजनीति की सभी रुकावटे टूट जाएँ। फिर भी इस सनातन संसार में जन्मभूमि और भाषा की मिर्च उसे परेशान कर रही थी।

इस शहर में एक ही ऐसा व्यक्ति था जहाँ वह सीधे बिना इत्तला के जा सकता था। वह मनोहर था। बाकी लोग जो नागरिकता के राष्ट्रीय नियमों के अनुसार हिसाब किताब रखते थे, उसे भूल रहे थे। सोमदत्त इसलिए वापस हुआ था कि उसे पुनः याद किया जाने लगे और मातृभूमि में अपनी पताका एक बार फिर से फहराकर फिर कुछ समय के लिए तसल्ली के साथ प्रवासी हो सके। अपने इस करतब के लिए वह कई बार आना-जाना कर चुका था।

टैक्सी भागती रही। उसने कभी-कभी बाहर देख लिया। यह एक सुनसान तरीके का देखना था। परिवर्तनों के प्रति वह दिलचस्प नहीं था। उसके लिए यह एक मामूली बात थी। कहाँ फ्रैंकफुर्त, बर्लिन, न्यूयार्क, पेरिस, लंदन और कहाँ दिल्ली।

उसका मित्र मनोहर अब तक काफी उन्नत अवस्था को प्राप्त हो चुका था। उसने सोमदत्त को देखकर ठंडा आश्चर्य प्रकट किया, “तुम आ गए? मुझे बहुत अफसोस है कि मेरे कई बार मना करने के बावजूद तुम यहाँ वापस आ गए। यहाँ कुछ नहीं बचा है।”

वैसे वह खुश भी हुआ कि उसके कमरे में विदेशी लेबल लगा कीमती सामान रख दिया गया है और उसका नाम नामी दोस्त अब कुछ समय के लिए शहर में उसके बाएँ-दाएँ रहेगा। आगंतुक खिला हुआ और तरोताजा था। उसके ऊपर यात्रा कहीं नहीं दिखती थी। वह तत्काल गुलसखाने से आया लगता था। सोमदत्त ने कहा, “ये सब फिजूल की बातें छोड़ो। देखो, मैं बीयर की कितनी बोतलें ले आया हूँ।”

देखते ही देखते उसने कुछ नहीं तो एक के बाद एक सात-आठ बोतलें बिस्तरे पर लुढ़का दी। “इन्हें फ्रिज में रख दो।”

मनोहर ने लगभग कराहते हुए कहा, “मैं समझता हूँ, तुम मेरा उपहास नहीं कर रहे हो लेकिन फ्रिज मैं जल्दी ही खरीद लूंगा। यहाँ वोल्टेज में हेरफेर होता है और दूसरे पावर गायब रहता है।”

सोमदत्त ने बहुत मामूली-सा सुना। वह एक पल को परेशान हुआ। “फिर इन बोतलों का क्या होगा? दिल्ली बेहद गर्म है और मैं बेहद प्यासा हूँ।”

“बर्फ है।”

मनोहर ने इतमीनान से बर्फ साफ की और चुपचाप तोड़ने लगा। ऐसा लगा, सोमदत्त को बर्फ से खुशी नहीं हो रही है। मनोहर आवश्यकता से अधिक चुप था जबकि परिस्थितियाँ वाचाल होने की थीं।

“मैं एक परिवर्तन तुम्हारे अंदर देख रहा हूँ।” सोमदत्त ने कहा, “तुमने बोलना काफी कम कर दिया है। तुम्हारे देश में यह चुप्पी अधिकतर स्त्री द्वारा उत्पन्न निकम्मेपन की निशानी है। इसलिए तुम्हें सावधान रहना चाहिए और गलत वारदातों में नहीं पड़ना चाहिए।”

“नहीं, मैं आजकल चुप रहना पसंद करता हूँ। इस देश में पुरुष और स्त्री की आवाजें अलग-अलग हैं। पुरुष की आवाज अश्लील हो गई है।” बर्फ अब तक टुकड़ों में तैयार हो चुकी थी।

“तुम्हें यह अनुभव यूरोप में नहीं मिलेगा। वहाँ बराबरी है, इसलिए स्त्री की मूर्खता और भार उसकी अपनी जिम्मेदारी है।”

“मैं समझता हूँ वहाँ रमणीक स्थानों की बहुतायत, खाने-पीने की असंख्य सहज रूप से उपलब्ध वस्तुओं, मनोरंजन के विविध साधनों, अथाह धन और सुलभ शरीर के कारण स्त्री का ठेंगा ज्यादा काम नहीं करता होगा।” यह वाक्य मनोहर ने किसी तकलीफ में नहीं वरन् बीयर के बँट, सिगरेट के धुएँ और काजू के टुकड़े के भीतरी स्वाद में खोकर कहा। लेकिन तभी उसने तनाव महसूस किया। तनाव से अधिक यह एक खास प्रकार की किक थी। इस किक से मस्तिष्क उछलता हुआ काम करता है।

“यहाँ इस तरह आकर तुम क्या समझ सकते हो? तुमने कभी समझने का प्रयत्न भी नहीं किया। तुमने अपनी महत्वपूर्ण उम्र मुल्कों में बिताई है? तुम्हारे लिए अब बहुत मुश्किल है।”

“यहाँ ठीक खाना नहीं मिलता। भूखे को सम्मान नहीं मिलता। रहने का मकान नहीं है। और शोभा और समय के लिए स्त्री नहीं मिलती। कलाकारों की हालत थकी वेश्या या टूटे पहलवान जैसे हो गई है। शादी तो यहाँ पर पटककर करनी पड़ेगी। तुम जानते हो, तुम्हारे छह वर्ष के प्रवास में हमारी पीढ़ी का एक भी नौजवान नहीं बचा।” मनोहर ने एक तगड़ा घूँट लिया और टेढ़े तरीके से कहा, “इस देश में रहकर तो समझूँ। तुम जू में रह सकते हो, लेकिन इस देश में नहीं।”

इस टेढ़ेपन पर सोमदत्त मुसकराया। वह पीरे-मुगाँ था। वह भव्य तरीके से खुश हुआ। मुसकराहट का तात्पर्य बारीकी से बाहर आया। “मैं क्या फँसूँ? तुम सब मेरे सयानेपन पर सर पटक-पटक कर मर जाओगे। तुम लोग पहले से ही मर रहे हो। मुझे कुत्ते ने तो नहीं काटा है जो यहाँ सड़ता रहूँ। मुझे तो कभी-कभी आना है और बंदोबस्त करके चले जाना है।”

टंबलर की बाकी बीयर सोमदत्त ने गट-गट, उच्छृंखल तरीके से खत्म कर ली। यद्यपि उसका तरीका यह नहीं था। वह बीयर को चूम चूम कर पीता था।

छह वर्ष बाद मनोहर और सोमदत्त की मुलाकात का यह पहला टुकड़ा था।

दूसरी बार सोमदत्त की उपस्थिति में मनोहर से मेरी मुलाकात एक शानदार लेकिन तनहा आयोजन में हुई। मुझे जीवन में पहली बार शहर के सर्वाधिक भद्र स्थान में अवसर मिला। किन्हीं अंशों में यह मेरा ठसियलपन भी था। वहाँ मैं मूर्तिवत् एक चित्र-विचित्र जीवन और उसकी भाषा का दर्शन बना बैठा रहा।

मैं थोड़ा-सा पीने और सोमदत्त के संस्मरण सुनने के अलावा और कुछ नहीं कर सका। शायद बोल भी नहीं सका। मैं वहाँ मनुष्य नहीं रह गया था। इस देश की ‘कुत्ती जनता’ का एक नुमाइंदा था।

आहार-कक्ष में, जहाँ हम बैठे थे; कीमती शमादान और मूर्तियाँ थीं। मखमली कालीन, सुनहली मेज, स्फटिक की राखदानियाँ और भ्रमण करता हुआ आहिस्ता संगीत था।

वे बैठकर बातचीत शुरू कर चुके थे। जल्दी ही वे सुथरे हुए घाघपने पर उतर आए। मुझे लगा बौद्धिक तिकड़म का ‘सी सॉ’ हो रहा है। लेकिन वहाँ के माहौल में इतनी तरावट और कल्पना थी कि किसी भी व्यक्ति को ‘सी सॉ’ का पता नहीं लग सकता था।

कटे हुए शीशों के शानदार सफेद टंबलर और ठंडी तर-बतर बोतलों की सुनहली बीयर उनके सामने राहत की संजीवनी की तरह एक हाथ के फासले पर झिलमिला रही थी। यह वह नशा है जो पिछड़े हुए दकियानूसी और साजिशपूर्ण अर्थ-व्यवस्था वाले भुखमरे हिंदुस्तान में उनकी रक्षा कर रहा था। इस वातावरण में मेरी हवा बंद थी। मैं सामान्य नहीं रह पाया। मैं थोड़ा ललच भी रहा था। सोचा, अनुभव इनती बुरी चीज नहीं है कि उम्दा वस्तुओं के मामले में बिलकुल आध्यात्मिक भाव धारण कर लिया जाए।

मैं कोई देह से ऊपर उठा व्यक्ति नहीं था। यद्यपि मुझे संदेह था कि मनोहर और सोमदत्त उस व्यवस्था को ढील दे रहे हैं जो हर जगह धूल की तरह घुस जाती है। कहीं यह धूल मेरे अंदर भी तो प्रवेश नहीं कर रही है? इन लोगों के जीवन में पिछला कुछ समय ऐसा भी था जब ये होशियार नहीं थे और मुश्किलों में गिर पड़े। आज इन्हें दु:ख है कि तब वर्तमान नुस्खा न जानने की वजह से अतीत में उन्हें कुछ कठोर वर्ष गुजारने की बेवकूफी करनी पड़ी।

ज्यों-ज्यों समय बीतने लगा हॉल में रोशनियाँ कम की जाने लगीं। वहाँ बुझा हुआ भूरा और मंद प्रकाश था। वहाँ ऐसी अवस्था थी कि बाहर का मौसम, समय और प्रकृति लोगों को नामालूम रहे और लोग खो जाएँ। मुझे खुद कमजोर रोशनी पसंद आई क्योंकि मैं बाहरी और एक हद तक अजनबी था।

इस समय मनोहर एक मोटे सिगार की तरह कभी-कभी सुलगता मालूम पड़ रहा था। सोमदत्त दुबला और चौचक पुतले की तरह शरीफ बैठा था। उनमें प्रथम कोटि का रूमानी सुनसान था—किसी निर्जन में लगे लैम्प पोस्ट की तरह जिसके शीर्ष पर काँच मढ़ा हो और जहाँ प्रकाश को महज सुंदर बनाकर बेकार कर दिया गया हो। उसका चेहरा समय के चरेरपन से सर्वथा मुक्त था।

वे दोनों आमने-सामने थे। विदेश से लौटा सोमदत्त अपनी जगह पर हिल-डुल नहीं रहा था, सिवाय बीच-बीच में टंबलर उठाने के, उसे पीकर रख देने के। बातचीत के वक्त भी वह स्थिर दिखता था। यह उसके स्वस्थ और मोक्ष-अवस्था की निशानी थी। मनोहर काफी शारीरिक हरकतें कर रहा था जो उस सीमित-से स्थान पर संभव थीं। मुमकिन है, अपने को ठोस और आधुनिक जताने में सफल न हो पाने की वजह से वह बेकाबू होने लगा हो।

सोमदत्त प्रवास से लौटा हुआ नौजवान था। उसकी जेब में दूसरों को तड़पा देने वाला, बल्कि कुचल देने वाला विश्व बाजार था। उसे पता था, शिल्प के ऊपर कैसे सवारी की जाती है। वह अपने दोस्त के लिए एक संवाद बोलता और बीयर में गुम हो जाता था। दस-पंद्रह मिनट बाद दूसरा संवाद बोलता और बीयर में गुम हो जाता। बीयर के प्रति वह अत्यंत कोमलता और आजिजी का बर्ताव कर रहा था। दरअसल, यह एक बहुत आसान-सी समझ थी कि वह अपने मित्र को इस तरीके से रेत रहा है। फिर वह ऐसा मनुष्य है जिसकी इस दुनिया में अभी तक कोई कक्षा या श्रेणी निधारित नहीं हुई है। जब लगता, अकड़ कुछ ज्यादा ही झलक रही है तब सोमदत्त एक छोटा-मोटा संस्मरण जड़ देता था। मुझे लगा, सोमदत्त अब पूरी तरह से उस उच्च बौद्धिक हालत पर पहुँच गया है जहाँ से उसे वापस बुलाया नहीं जा सकता।

मुझे उकताहट होने लगी। मैं जितना समय पी सकता था वह पूरा हो चुका था। मैं अब उलट देता। बीयर ब्लैडर पर आ गई थी। फिर मैं यह जानने को भी बेकरार हो गया कि इस कक्षा के बाहर क्या हो रहा है। बहुत समय एक ही प्रकार की प्रक्रिया में बीत गया। मैं अपनी मानसिक शांति के लिए किसी भी नए चेहरे को देखना चाहता था। मैं इस मामूली-सी बात के लिए तड़प गया। हारकर मैंने वेटर की तरफ ध्यान दिया लेकिन तभी सोमदत्त ने एक निजी बयान शुरू किया।

“यह लंदन का वाकया है। वह रात जला देने वाली ठंड के चंगुल में छपटपटा रही थी। लंदन को इस कदर निर्जन मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं एक चौंतीस वर्ष की तीखी महिला मॉडल को लेकर कमरे पर आया। मैंने उसके बहुत-से फालतू स्केच किए और अंतत: उसके मध्य भाग के कुछ सफल स्केच के अलावा मैं कुछ भी नहीं कर सका। वे चीजें जितनी पास और सुलभ लगती हैं उनसे वे कहीं बहुत दूर और दुष्कर होती हैं।

मेरी बहुत मनौती के बावजूद उस महिला ने मुझे झटक दिया और गलती हुई देर रात में भी लौट जाना पसंद किया क्योंकि उसे रास्ते में अपने बच्चे का साथ करना था।

स्केच करने के तुरंत बाद मेरे अंदर एक हिंदुस्तानी अफसोस उत्पन्न हुआ। मैं अपने अंदर की इस कील को पूरी तरह कैसे ठोक सकता था। मैंने उस पर 10 पाउंड खर्च किए थे। लेकिन मनोहर, तुम विश्वास करो, लंदन में यह मेरा अंतिम अफसोस था। उस महत्वपूर्ण रात को मैंने एक अलौकिक रोशनी अपने अंदर कौधंती हुई महसूस की।”

इतना कहकर सोमदत्त खामोश हो गया। शायद वह लौट गया था। उसकी चुप्पी से उसे लगा वर्णन समाप्त हो गया। उसने दोनों के टंबलर फिर से भरे। फिर मेरी तरफ मुखातिब हुआ। उसने संभवतः मुझे समझने की जरूरत नहीं समझी। एक तपाक से बनाई हुई याद का उसने मेरे प्रति प्रयोग किया और कहा, “आप भी पीते जाइए।”

छूटे हुए घटनाक्रम को उसने शुरू किया-

“उस महिला के चले जाने के बाद मुझे रात को एक बजे पत्नी के हॉस्टल जाना पड़ा। रास्ते में मैंने सोचा, ‘आखिर इस कठिन और मूर्खतापूर्ण काम में मैं क्यों लगा हूँ।’ लेकिन मैं रुका नहीं। मैंने कमाल किया। उस जबरदस्त रात को मैं तीस मील गया। पत्नी ने घड़ी देखी और बेरुखी के साथ कहा, ‘खेद है, तुम्हारा इरादा पूरा नहीं हो सकता। इस बेवक्त मैं अपने को तैयार करने में असमर्थ हैं।’

तब रात के ढाई बज चुके थे। मेरे कोट पर काफी बर्फ थी। वह मुझे बैठने को नहीं कह सकती थी क्योंकि वैसा करने से उसका कमरा ठंडा और गंदा हो जाता। कुछ सोचकर उसने कहा, ‘अच्छा एक मिनट’ और वह भीतर गई। तब तक के लिए दरवाजा बंद हो गया। जब वह खुला पत्नी एक पुर्जा लेकर सामने थी- ‘इसमें रूबी का पता है। वैसे तुम उसके पास पहले भी जा चुके हो। अगर तुम्हें तुरंत टैक्सी मिल सके तो बीस मिनट में पहुँच सकते हो। वह तुम्हें थका देगी और कृतज्ञ करेगी। लेकिन साथ में रम या ब्रांडी जरूर रखो। उफ, यह ठंड, गुडनाइट’ और द्वार बंद हो गया।

मैंने इस पार से श्रीमती जी को धन्यवाद दिया। वह शायद ही सुना गया हो। फिर मुड़कर पुर्जे को तेज बर्फीली हवा के हवाले कर दिया। धीरे-धीरे मुझे एक खुशी महसूस हुई। मैं रात-भर रास्तों पर चलता रहा और सोचता रहा।

ठंड के लिए मेरी जेबों में काफी शराब थी। मुझे केवल एक ही शब्द समझ में आया, आजादी। दिस इस फ्रीडम। एक दुर्लभ आजादी।”

अंत के इस दार्शनिक मोड़ पर मनोहर ने एक गहरी और ठंडी सांस ली। इधर इस संस्करण के साथ ही सोमदत्त का क्रम पूरी तरह टूट गया हो ऐसा नहीं कहा जा सकता था। उसने एक चोट और की-

“मैं यहाँ बार-बार आता हूँ पर यहाँ की भूमि, यहाँ के आकाश का मेरे लिए क्या मतलब रह गया है? मनोहर, बोलो, क्या मतलब है मेरे यहाँ आने-जाने का? उस आजादी के बिना क्या कहीं रहा जा सकता है? जहाँ तक तुम लोगों का प्रश्न है, तुम्हारी इस आजादी से कभी मुठभेड़ नहीं हुई इसलिए अपनी गुलामी तुम्हें कभी नागवार नहीं लगेगी।”

सिगरेट सुलगाते हुए सोमदत्त ने पूछा, “तुम क्या सोचते हो?”

“कुछ नहीं,” मनोहर ने थूक मुँह में इकट्ठा किया पर उसे जगह का खयाल आ गया। सुंदर जगहों में उसे थूकना कहाँ आता था। उसने थूक वापस लौटा लिया।

“जंगल में शिकार ही न हो तो शिकारी कब तक झख मारता रहेगा। सोम, यहाँ केवल निब और स्याही है, रंग और ब्रश है। इतने मात्र से क्या हो सकता है। घटनाएँ बंद हो गई हैं, उमस भर गई है यहाँ। बैठे रहने के अलावा यहाँ कुछ नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य से समस्त सुखद और करुणाजनक घटनाएँ समुद्र पार घट रही हैं। इसलिए वहाँ लोग रचनारत हैं और हम तनावहीन रक्तपात में सैलानी की तरह घूम रहे हैं।”

सोमदत्त ने विशेष ध्यान नहीं दिया। वह मनोहर से फुसफुसाकर बोला, “जल्दी खत्म करो, अभी खाना बाकी है और यह निर्णय भी बाकी है कि तुम्हें अपने समाज पर आक्रमण करना है या नहीं।”

वह खुद ही बोला, “मेरी राय यह है कि तुम यहाँ से हटने की तैयारी शुरू कर दो।”

“लेकिन अब तुम देखोगे कि दिल्ली कितनी बदल गई है”, मनोहर मात्र एक दुबका हुआ श्रोता नहीं बने रहना चाहता था। उसने अपनी पहचान को अलग करना चाहा। “दिल्ली में अब काफी आक्रामक गतिविधियाँ हैं और तनाव भी, और लड़कियाँ खूब दुस्साहसी, बुद्धिमान तथा आजाद हो चली हैं”, कहते हुए वह किंचित् शरमाया गोया ये लड़कियाँ उनके घर की ही लड़कियाँ हैं।

सोमदत्त ने मनोहर की तरफ ध्यान से ताका। मन में सोचा, तो यह है भोंदू हिंदुस्तानी। अभी तुम्हारे पास फार्मूला प्रेमिका और बीवी, इन दो तरह की देशी औरतों की जानकारी के अलावा और क्या है।

“सुनिए”, कुछ सोचते हुए सोमदत्त ने कहा, “वहाँ की बात बताता हूँ। वहाँ अठारह साल की लड़की अपने चार मर्द मित्रों को एक पूर्व नियोजित आयोजन में बुलाकर एक क्षण में उन्हें विभोर कर देती है। वह उनके बीच खड़ी हो जाती है लगभग घिरी हुई। मर्द दोस्त जब तक उसकी छातियाँ गुदगुदाते हैं, एक-दो-तीन, वह लॉन में खड़े अपने प्रेमी को बाएँ हाथ की पिस्तौल से उड़ा देती है।

इसके बाद वे पाँचों दौड़ते हैं, लाश को जम्प कर जाते हैं और ठहाकों से बागीचा गूंज जाता है। ये स्त्रियाँ हैं जिन्होंने पुरुषों को अदम्य साहस से भर दिया है और वे खतरनाक रास्तों पर चल पड़े हैं।”

मनोहर ने कहना चाहा, ऐसा मैंने हालीवुड फिल्मों में भी देखा है, पर वह बुरी तरह हड़का और आतंकित था और नानी की कहानी की तरह सुन रहा था। बेहतर होकर बोला, “यह सूअर और गधों का देश है। पिछले वर्षों में यह देश बिलकुल बरबाद हो गया, अब यहाँ जीवन की गुंजाइश नहीं। मैं बराबर सोचता हूँ और समझ नहीं पाता कि तुम यहाँ वापस क्यों आए?”

“तुमको, पूरी तरह समझने में अभी समय लगेगा, लेकिन क्या तुम्हें अंदाज है कि यह बात तुम मुझसे तीन बार पहले भी कह चुके हो”, नशे की हल्की लपट में सोमदत्त बोलने से अधिक गुर्राया।

मैंने पाया सोमदत्त, मनोहर के साथ बिल्कुल वैसा व्यवहार कर रहा है जैसा कि मनोहर ने कभी मेरे साथ किया था।

मनोहर ने मार खाने और गिर पड़ने जैसा अनुभव किया पर उसने सोचा, उसका साथी अगर शराब और भोजन का बिल चुकता कर देता है तो यह मार फिलहाल चल जाएगी। फिर उसे यह भी लगा कि अभी मुझे अपना बहुत विकास करना है। इतना विकास कि सोमदत्त पिछड़ जाए। इसलिए मुझे घायल होने की जरूरत नहीं है। उसने कड़वा घूँट चुपचाप पी लिया और अपने चेहरे की मदिर तनतनाहट में ढकेल दिया। धीमी रोशनी की वजह से उसका चेहरा जाहिर नहीं था। एकबारगी पीकर उसने सोचा, “ठीक है खरगोश, अभी मैं कछुवा ही सही।”

इस मुलाकात के बाद अंदरूनी तौर पर मनोहर काफी दुखी रहा लेकिन दोनों मित्रों ने मिलकर शहर में जल्दी ही अस्तित्व की साजिश शुरू कर दी। सामाजिक जीवन में एक नया दौर और गहमागहमी शुरू हुई। बुद्धिमानों को भी तो आखिर कुछ करना था। दुनिया उन्हें पुकार रही थी। वे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रह सकते थे?

इन लोगों ने वातावरण में हवा भरनी शुरू की। अखबार, टेलीविजन, प्रकाशनों और कला संस्थाओं को इन्होंने हलचल से भर दिया। तब पता चला कि शहर में केवल दो ही व्यक्ति नहीं हैं। ऊँघती हुई बहुत-सी माँदें थीं, वे यकायक खुल गईं। मैं खुद इस सरगर्मी पर विस्मित था। इतने सारे लोग यहाँ हैं।

मनोहर और सोमदत्त ने लिखा-पढ़ी, संपर्क और फिक्र करने का काम आरंभ किया। जहाँ भी नायक मारा गया इन्होंने आवाज दी। इन्होंने राम-रावण का प्रश्न समाप्त कर दिया। उनका कहना था, मृत्यु में व्यक्ति केवल मानव है। असंख्य लोगों ने इनकी आवाज को चीखते हुए ग्रहण किया। इस जमात ने जूझते हुए मूर्ख लोगों को दरकिनार कर दिया। कला-दीर्घाओं में सुरुचिपूर्ण हाय-हाय का प्रदर्शन नियमित रूप से होने लगा। दूर पड़े हुए यहाँ आकर देखते तो पता चलता कि इन लोगों में नीले, पीले, सफेद, लाल सभी रंग मौजूद थे। इनकी दुनिया निहायत गर्म और रोमांचकारी लोकतांत्रिक थरथराहट से भरती जा रही थी।

मेरे सामने यह कठिन प्रश्न था, इन महानुभावों में आखिर आपत्तिजनक क्या है। वे बुरी चीजों के विरूद्ध है। क्रांति के लिए इन्होंने अपना दस्तखत अग्रिम सौंप रखा है फिर मेरे दिमाग में इनका उल्लू क्यों खिंचा जा रहा है।

सोमदत्त ने बहुत थोड़े समय में अपने को ताजा और समसामयिक कर लिया। जब उसने देखा कि काम ठीक से चल निकला है, तब अपने प्रवास की व्यवस्था देखनी शुरू की। इस बार उसकी दिली ख्वाहिश ‘लिबर्टी’ के सामने से गुजरने की थी। वह गुरू हो चुका था और उसने स्थानीय बाशिंदों का काम तमाम कर दिया। मन में आनंद लिया, “मध्यवर्गीय चूतियो, अपनी कब्र में करवटें, लेते रहो, मैं चला।”

मनोहर और सोमदत्त जहाँ रहते थे वह एक सुरक्षित स्थान था। वहाँ कोई तैश और हिंसा नहीं थी। वहाँ शरीर, संपत्ति और सतीत्व को बेपनाह चैन था। सभ्यता के ऐसे बाड़े से निकलकर हमारे मित्र सीधे जनता के बीच जाते और दिन-भर घूमघाम कर, रात के अंधकार में सही-सलामत अंदर हो जाते।

इन लोगों को बहुत कम समय मेहनत करनी पड़ी। शहर इन्हें काँटे का बुद्धिमान मान चुका था। लेकिन दो हजार रुपए माहवार, उम्दा भोजन और मदिरा, सलीके से बिखराई हुई संपन्न बैठक और आधुनिक महिलाओं की चहल-पहल से भरे हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों में से गुजरने के बाद भी, भारत भूमि, पर वे अकेले थे और जल बिन मछली की तरह तड़प रहे थे। मनोहर तो इधर बहुत ही अधिक तड़पने लगा था। असलियत यह थी कि पिछड़े हुए देशों में तरक्की करता हुआ अर्थशास्त्र उसके सामने एक न एक नई दिक्कत पेश कर देता था। सन् आठ में उसने सोचा था, चार हजार रुपए हों तो जरूरी वस्तुओं से पूरा हो जाएगा। आज वह सोचता है, बीस हजार से कम नहीं लगेगा और वह इस देश में नामुमकिन है।

सोमदत्त की बुलंदी ने मनोहर को पटरी पर से उतार दिया। वह ऊपर से व्यस्त और चालू था। रात को जब वह घर लौटता, सोफे पर घंटों सुस्त पड़ा रहता। वह सोमदत्त का काटा हुआ था। उसका बदन दुखता और वह लेटे-लेटे बड़बड़ाया करता। उसे खौफ था और घबराहट, किसी दिन सोमदत्त बोइंग पर बैठकर चला जाएगा। फिर क्या होगा वही भीड़-भरी तन्हाई वाली दुनिया। बहुत-सी इच्छाओं के साथ खुदकशी की भी इच्छा होती।

उफ्, यहाँ कितना दमघोंटू वातावरण है। वह उठकर लाचार नजरों से अपने कमरे उर्फ मौत के कुएँ को देखता रहता। वही शताब्दियों पुराना सन्नाटा, वही पाजामे के नाड़े जैसे बेसहारा झूलते लोग। नहीं, नहीं। मुझे नर्क में नहीं सड़ना चाहिए। कविता यहाँ नहीं है। कविताएँ वहाँ हैं। यहाँ कविता कुकर्म है। कविता और जेल के बीच यहाँ एक सीधी सड़क है। कमरे में वह अपने से बात कर रहा था। वहाँ मैं फँस गया हूँ, यहाँ मैं पैदा हो गया हूँ। बकते-बकते मनोहर की कँपकँपी हो जाती।

काम समाप्त हो चुका था। दिन पलटने जा रहे थे। सोमदत्त कभी भी जा सकता था। मनोहर की शामें जैसी तकलीफ में ही थी। उस दिन सोमदत्त अपने वर्तमान आवास की अंतिम शराब लेकर आया। मनोहर के लिए उसने सीढ़ियों पर से ही घोषणा की, “मेरे कागज आ गए हैं, गुडबाय कभी भी हो सकता है।”

मनोहर सोफे पर गुड़ीमुड़ी पड़ा था। वह एक कमजोर रोगी की तरह उठा। मालूम पड़ा, वह रो रहा है। सोदत्त को आलिंगन-बद्ध करके वह रोता रहा। काफी देर तक सोमदत्त असलियत नहीं समझ सका।

“मुझे यहाँ नहीं रहना है। मैं यहां नहीं रह सकता। मैं साथ चलूंगा। मुझे तुम मरने से बचा लो।”

भावावेश में वह सोमदत्त के पाँव पर गिर पड़ा। सोमदत्त ने मनोहर को वापस सोफे पर बैठा दिया।

“पागलपन छोड़ो, एक ताकतवर आदमी जैसा बर्ताव करो।”

मनोहर अपनी जगह पर मूर्ति जैसा अड़ा हुआ था। “यह बहुत आसान है, मित्र” सोमदत्त संजीदगी से बोला, “लेकिन तुम्हें इसके लिए बहुत-सी तैयारियाँ करनी होंगी। सबसे पहले तुम्हें अपनी प्रेमिका से मुक्ति लेनी होगी। यहाँ अपनी पूँछ छोड़कर तुम्हारा जाना मुनासिब नहीं है। तुम्हारे दिल को देखते हुए मुश्किल काम है, लेकिन मैं सोचता हूँ कि अगर तुम अपने माँ-बाप और घर को छोड़ सकते हो तो प्रेमिका को क्यों नहीं छोड़ सकते?”

सोमदत्त सिगरेट जलाकर कमरे में चहलकदमी करने लगा। मनोहर अब हिलने-डुलने लगा। उसने भी सिगरेट सुलगाई।

“मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ,” सोमदत्त ने कहा- “लेकिन तुम पहले वादा करो। तुम समझने का प्रयत्न करो कि प्रेम कुछ नहीं सिर्फ पालतूपन है।”

दूसरे दिन मनोहर चिंताजनक आधुनिक सन्निपात लिए हुए सोफे पर पड़ गया। वह जानता था, सुधा के आने का वक्त क्या है। उसने आँखें खोलीं। माथे पर बल भरे हुए थे। सोफे पर वैसे ही पड़े हुए, खड़ी औरत से पूछा, “तुम कौन हो? क्या दरवाजा खुला हुआ था?”

सुधा मुसकराई, “बड़े मूड में हो आज?”

मनोहर चीख पड़ा, “अजनबी औरत, चलती बनो। मैंने समझ लिया है। मुझे प्रेम या स्त्री, किसी भी चीज की जरूरत नहीं है।”

“लेकिन मैं चीज नहीं हैं, प्रेमिका हूँ, सुधा। क्या जाने आज ज्यादा पी ली है?”

मनोहर जैसे शून्य की तरफ मुड़ गया था। निस्सार हँसते हुए बड़बड़ाया, “प्रेमिका, धन्य हो तुम प्रेमिकाओ!”

“अच्छा सुनो, पास आओ,” छोटे-से अंतराल के बाद वह बोला। सुधा कुछ डरी, जैसे उसे किसी विक्षिप्त के पास जाना हो लेकिन वह कुछ और पास गई।

“बताओ, प्रेमिका की बच्ची, क्या तुम मुझे गोली से उड़ा सकती हो?” किचकिचाते हुए उसने कहा, “क्या तुम दस भूखे व्यक्तियों के साथ मानवीय सलूक कर सकती हो? जवाब दो, मैं तुम्हें बोलने की आजादी देता हूँ।”

सुधा सन्नाटे में आ गई और सन्नाटा शोक की तरह धीरे-धीरे उस पर छा गया। वह उठी और चाय बनाने चली गई। उसने सोचा, शायद इस तरह कुछ रास्ता खुले। वह शायद सिसक भी रही थी। एकाएक यह क्या हो गया। मनोहर जोश में बोलता रहा, “मैं जानता हूँ तुम्हारे पास उत्तर नहीं है, तुम बस भाग सकती हो। स्त्री, तुम मित्रता के अयोग्य हो, तुम बिल्ली और चिड़िया हो, अधिक से अधिक एक गाय हो।”

वह सोफे पर खड़ा हो गया, “नीत्शे, तुमने सच कहा था…” मनोहर का हाथ काफी समय तक मशाल की तरह उठा रहा।

सुधा चाय बनाकर लाई। दुर्भाग्य से जब वह चाय लेकर आई उस समय आग पूरी तरह धधक रही थी। मनोहर ने ट्रे पैर से उछाल दी और स्त्री को कमरे से बाहर निकल जाने को कहा। लेकिन ऐसा करते समय सोफे पर खड़े मनोहर का संतुलन बिगड़ गया और वह नीचे लुढ़क गया।

कुछ पल वह नीचे पड़ा रहा। ‘स्त्री’ की तरफ देखता रहा। उसका मतलब था, ‘स्त्री’ सहारे के लिए आती है या नहीं। आएगी तो उसकी और गत बनाऊँगा। गिर जाने की वजह से वह बेहद चिढ़ा हुआ था और उसका चेहरा भक-भक कर रहा था। सुधा ने उसको मौका नहीं दिया। मनोहर वैसे ही पड़ा रहा।

सुधा ने कपड़े नहीं सँभाले और न कमरे में बिखरे हुए काँच की परवाह की। वह बाहर निकल गई। मनोहर ने ताज्जुब और आर्तनाद छिपाकर जाती हुई सुधा को पीड़ा से देखा, सावधानी से देखा। यह हुई एक बात। इतने अनशासन के बाद छाती पर पत्थर रखकर, किसी तरह उसने विप्लवी अनुभव प्राप्त कर ही लिया। तत्पश्चात् उसने अपने को दिलासा दिया, “मुझे शक्की नहीं होना चाहिए। मैं एक क्रांतिकारी नौजवान हूँ, मैं पतित होने से बच गया। मैंने कभी तय किया था कि मुझे इसी तरह रहना है। मैं विचलित नहीं हो सकता।”

उसके कमरे से उतर कर सुधा जब नीचे सोमदत्त के कमरे में पहुँची तो शहर के दक्षिणी हिस्से में पेड़ शोर के साथ हिल रहे थे। शहरों में कमरे के अंदर से मौसम का अंदाज नहीं लगाया जा सकता। शाम से ही रात की फिजा छाने लगी थी। बादल खूब गरजे।

सुधा मोटी नहीं थी। पतली थी, पतवार की तरह। जब वह नीचे पहुँची, सोमदत्त कुछ लिख रहा था। सुधा ने उसे जाकर सब बताया। पहले तो वह चुप बैठा रहा फिर बोला, “सुधा, तुम्हीं कहो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तुम्हें देखकर बेहद उदास हो जाता हूँ। मनुष्य हमेशा ही दुखी है। मैं तुमसे यही कहूँगा कि इस दुख को आजादी में बदल दो। पिंजड़े का परिंदा मत बनो।”

इसके बाद वह आधे घंटे नहीं बोला। इतना ठोस बोलने के बाद चुप रहना ही बेहतर था। सोमदत्त अपने समय का एक अभूतपूर्व ठंडा आदमी था। आप उसे देखकर समझ नहीं सकते थे कि उसके शरीर के किस हिस्से में प्राण मौजदू है। वह अपनी गरदन हिलाने और जबान चलाने में बिलकुल पक्षियों जैसी अदा रखता था। कभी-कभी वह इतना स्थिर और मौन हो जाता जैसे शव। लेकिन नहीं, वह शव जैसे सुसंस्कृत अवस्था को पहुँच गया था।

सुधा को इस चुप्पी के बीच अपने आत्मसम्मान का ध्यान आया होगा। वह उठी और चलने को हुई। सोमदत्त ने कहा, “सुधा, तुम्हे हट जाना चाहिए।”

वह चली गई। उसने सुधा को पोर्च में, फिर लॉन से बाहर और अंत में सड़क की पटरी पर देखा। धूल ने सड़क के लैंप्स को घेर रखा था और पीली मटमैली रोशनी वहाँ एक धब्बे की तरह चिपकी थी।

झटका करने के बाद सोमदत्त को लगा उसकी आँख सहसा किसी कैमरा-आँख की तरह निर्जीव हो गई हैं; एकटक और बार-बार बस एक ही चित्र में गुजर रही हैं। सुधा अब जा चुकी थी। सोमदत्त ने अपने को स्वच्छता और शांति के लिए झकझोरा। उसे खेद नहीं वांछित था, उसे भौतिक अपार को पार करना था।

जिस दिन मनोहर ने सुधा को पहचानने से इनकार कर दिया और उसे कमरे से बाहर कर दिया, उसी दिन से उसका भाग्य चमक उठा। उसे शीघ्र ही विदेश जाने का सुअवसर मिला। दरअसल यह अवसर एक तरह से सोमदत्त की मुट्ठी में था। सोमदत्त ने मुट्ठी खोल दी। लोगों ने देखा, मनोहर एक अपूर्व ओजस्विता से भर गया है। वह अब सोफे पर पड़ा नहीं रहता था। वह सार्वजनिक हो गया था। वह दो-दो, तीन-तीन लोगों के समूह को संबोधित करने लगा। वह क्रुद्ध होकर उन्हें समाज के लिए ललकार रहा था। उसमें एक आजाद जानवर की घुर्राती हुई ताकत आ गई थी। उसने बड़े उत्साह से तैयारी की। ‘अगर-मगर’ करने वालों को उसने झाड़ दिया, “यहाँ रहना अपने को किल करना है। यहाँ जीवन में कविता नहीं है, बस शोर, गर्द, भीड़, घरेलू औरतें और शक्की मर्द।”

पासपोर्ट में लगी मनोहर की फोटो काफी अच्छी आई थी, नहीं तो इन दिनों उसका चेहरा गुंथे हुए आटे का लोंदा था। उसने अपनी वजनी पतलून और कमीजें लोगों को बाँट दी। उसने मेहतर को एक कमीज दी और बताया कि वह जा रहा है। टेलीफोन-मिस्त्री आया तो उसे एक पतलून दी। उससे कहा, यह मुश्किल से एक-दो बार पहनी हुई है, तकरीबन नई है, और बताया कि वह जा रहा है।

उसने कई टेलीफोन किए। बहुत-से पत्र लिखे और अखबार वालों से मुलाकात की। उन्हें अपनी फोटों की प्रतियाँ वितरित की। कुछ दिन उसे लगातार दावतें खानी पड़ी। इसके बाद वह दिल्ली से उसी तरह बंबई रवाना हो गया जिस तरह दस वर्ष पहले वह अपने घर से इस शहर में आया था।

उसने मुझसे पूछा, “क्यों, बंबई तक चलोगे? शायद अब मैं वापिस न लौटूँ। मैं समुद्र-मार्ग से जाऊँगा।” यह उसकी कृपा थी, मुझे लगा, कहीं यही तो उसका तहेदिल नहीं है। मैंने भावुकता का दबाव महसूस किया यद्यपि भाव काफी गडमड थे। मुझे उसके साथ कस्बे का निर्दोष बचपन याद आया। मुझे जाना चाहिए था। मेरी पत्नी ने मुझे कुछ दबाए हुए रुपए निकालकर दिए और कहा, “तुम जरूर जाओ और जलो नहीं, समझे?”

कुछ मुलाकाती लोग तट पर आए थे। परंतु मैं अकेला था। मैं अपेक्षाकृत एक अलग और छिपी हुई-सी जगह पर अंतिम दृश्य देखने के लिए खिसक गया। मनोहर ने मेरे पास आकर मुझसे हाथ मिलाया। उसका शरीर, बहुत धीरे-धीरे दबोचे हुए आँसुओं की तरह हिल रहा था। लेकिन अपनी विकास यात्रा के लिए, वह कड़ाई के साथ जहाज पर चढ़ा।

उसके मित्र सोमदत्त ने अब तक कई साथी बना लिए थे। वह हाथ मिला रहा था, मुसकरा रहा था और मार्ग के लिए शराब की बोतलें पक्की कर रहा था।

तेज हवाएँ जहाज के आर-पार होने लगीं। जल का ज्वार पेंदी से लड़ रहा था। यंत्र ने उसे धीरे-धीरे दूर तक बढ़ा दिया। मनोहर नया था, वह अधिक आसक्ति के साथ डेक पर खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद डेक और तट पर बेनाक्यूलर्स की कतारें छा गई। मनोहर के पास बेनाक्यूलर नहीं था। मेरे पास भी नहीं था। यद्यपि इस समय मेरी सामाजिक चेतना और मेरी कठोरताएँ मेरे पास नही थीं फिर भी मैंने सोचा सूअर और कुत्तों का देश मनोहर को अब धुंधला लग रहा होगा।

मैं अपनी निजी और बुद्धिविहीन हालत में घिरा हुआ एक नौजवान आदमी के इस अंत का समारोह नहीं मना सकता था। मुझे लगा, मनोहर शायद मुझे रूमाल दिखा रहा है। मैंने भी रूमाल हिलाया। थोड़ी देर बाद हमारे हाथ थक गए।

ज्ञानरंजन
ज्ञानरंजन [जन्म: 21 नवंबर, 1936] हिन्दी साहित्य के एक शीर्षस्थ कहानीकार तथा हिन्दी की सुप्रसिद्ध पत्रिका पहल के संपादक हैं।