धूप तेज़ होने लगी थी
आसमान में
तैरने लगा
हल्का-सा एक बादल
सुदूर जंगल से
घर लौटते हुए लकड़ी
का गठ्ठर सिर पर उठाए
तातप्पा के भीतर
गहराता जा रही है अपनी औक़ात की सोच!
पहाड़ और राई का मेल कहीं
होता है भला!
धरती का निरादर कर
आकाश का सपना देख
रहे हैं लोग….
पगडंडियों की कंकरीली चुभन को
भूल जाते हैं ये
राजमार्गों पर
चलने वाले!
कलप-कलपकर
तातप्पा
फुसफुसाते जाते
कितनी ही बातें
चलते-चलते थाम
लेता चिन्नू उन्हें..
उमड़ चला था पूरी जमात का
दर्द उनकी आवाज़ में
चिन्नू उन हज़ारों
लड़कों में से एक था
जिसके शरीर में
उबाल मारता था
लाल गर्म समंदर
जो था लकड़ी ढोने के
लिए मजबूर
‘नहीं मिला काम इस बार
भी तातप्पा!’—बोला चिन्नू
सुनते ही भीगने लगीं उनके गालों की झुर्रियाँ
छूत-अछूत, धनी-ग़रीब
की धक्कम-धुक्की
धरी की धरी है
आज भी!
निर्निमेष देखते रहते तातप्पा
पेड़ की फुनगी पर
बैठे पक्षी की तरह…
अंत समय है क्या राग
क्या विराग!
ऋण पर टिकी ज़िन्दगी उतरती
जा रही है
किसी गहरी खाई में
खाई से अधिक
भयानक है छल
जिसमें न मृत्यु है, न जीवन है!
समय को फाँदकर
पहुँच गए थे तातप्पा कनकदास के
गीतों में
जिन्हें घर-घर में बाँचा
जाता था…
चिन्नू का हाथ पकड़कर वे गहरे
उतरते चले गए
कवि की चेतना में…
…क्रमशः