‘Dhoop Ka Tukda’, a poem by Amrita Pritam
मुझे वह समय याद है
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उँगली थामकर
अँधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।
सोचती हूँ : सहम और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस छोटे बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया।
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा-सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है, न हाथ को छोड़ता है।
अँधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी ख़ामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।
'मैंने किसे क़त्ल करना था और किसे क़त्ल कर बठी'