दो जिस्म रहते हैं इस घर में
जो दिन के
उजालो में दूर
रात के अंधेरो में लफ़्ज़ खोलते हैं

एक वो है जो
सुबह की उस पहली चाय से
रात के बेडरूम का दिया
बंद करने तक
समर्पित हो जाता है

रात के अंधेरे में
समर्पण के उस अंतिम चरण तक
पहुँचने का सारा जिम्मा सम्भालकर जी उठता है

दूजा जो
बंद लाईट में ढूँढता है
संगेमरमर की
वो मूरत
जो दिन के उजालों में
उसने देखी होती है
बस, दुकान, मुहल्ले,
बाजार, और रास्ते पर

एक ऑफिसों की
सारी भड़ास निकाल देता है रातभर उस देह पर
दूजा दिनभर की थकान से भरी
देह लिए बेजान पड़ा रहता है
बिस्तर पर

सूरज उगते ही
अजनबी बनकर लौट जाते हैं
अपने-अपने किरदारों में दोनों

हाँ दो जिस्म रहते हैं
बहुत सारे घरों में
जो दिन के उजालों में दूर
रात के अंधेरों में लफ़्ज़ खोलते हैं…

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3 COMMENTS

  1. बहुत उम्दा नज़्म लिखी है जनाब आप ने ।
    बहुत खूब और बहुत सच्ची नज़्म ।

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