वो लड़कियाँ रहीं आवारा बचपन से

वो चीख़ पड़तीं हर बार

जब पंसारी आधा किलो चीनी तौलते वक़्त
उठाने की कोशिश में रहा उनकी फ़्रॉक।
जब नृत्य की कक्षा में गुरु जी ने
स्टेप सिखाते हुए फिराया था कमर पर हाथ।
जब टेलर ने अपने लिजलिजे हाथों से
लेनी चाही थी सीने की माप।

उन्हें कभी रहा न गँवारा

पड़ोसी काका की गोद में बैठ
अपने गाल खिंचवाना।
गुड्डे-गुड़िया के खेल में, मौसेरे भाई का
गुड़िया के बदन को सहलाते हुए चूम जाना।
दूर के मामा का घर आते ही
‘कैसी हो गुड़िया?’ कह भींचकर गले लगाना।

वो भगोड़ी रहीं सदा

भाग आयीं कबड्डी, खो-खो के स्टेट लेवल से
जब खेलने की क़ीमत बिस्तर बतायी गयी।
वो भूल गयीं योगा, जब टूर्नामेंट में कहा गया
‘कमाल की फ़्लेक्सिबल है लड़की,
रात को रूम नम्बर 706 में मिल।’

भ्रमित रहीं उम्र भर

जान न सकीं, स्नेह व वासना का भेद
आँख मूँद जब स्नेह लुटातीं तो
बदले में वासना से सिहर जातीं।
जब हर किसी को वासना के तराजू पर मापतीं
तो झर स्नेह के गुलाबी फूल रौंद आतीं।

खो दिया बहुत कुछ असमय

खो दिया बचपन, मासूमियत,
अपना अच्छा दोस्त, प्यारे चाचू,
दूर के बाबा, अल्हड़ उमर का पहला प्यार,
निश्छल विश्वास, यक़ीं का जज़्बा।
उलझी रहीं- ‘हमेशा मेरे ही साथ क्यूँ होता है?’

मूढ़ बतायी गयीं

काँप गयीं पति के प्रथम स्पर्श से
रहीं असफल बहुत दिनों तक हमबिस्तरी में
नन्द, जिठानी ने हँसकर उपाय बताए
माँ और सास ने क़सम दे अपनी
टोने टोटके करवाए।
पति ने डराया-धमकाया, प्यार से बाहों में ले
अपनी मर्दानगी साबित न हो पाने का डर बताया।

दुबारा सीखा भरोसे का पाठ

भरोसा किया, भऊजाई की सीख पर
बड़की जीज्जी की सलाहें मानीं
आत्मविश्वास से ससुर से करने लगीं
देश दुनिया के विमर्श
समऊरिया देवर की बनी बेस्ट फ़्रेंड
घूँघट काढ़ किया जेठ-ननदोई के
अनर्गल प्रलापों का विरोध।

उम्र-भर की कमाई रही

बचपने से रही जीजी आवारा, अक्खड़
बड़की भऊजाई ने बताया।
सास ने कहा, ‘मुनऊ बो सुरूये से रहलीं तेज़’
जिठानी ने ‘रंगीन मिज़ाज क हव छोटी’ बताया।
सुकून घर भर की बढ़ती बच्चियों ने पाया
चाची, मामी, बड़ी मम्मी, बुआ, मौसी का
किरदार ख़ूब निभाया उन आवाराओं ने।

अपना सहमा बचपन, भ्रमित जवानी,
कलंकित बुढ़ापे का भार ढोती रहेंगी
वो आवारा लड़कियाँ, पर आत्मा हैं वो,
कभी सिर्फ़ देह न बनेंगी वो आवारा लड़कियाँ।