इस बार कॉलेज की छुट्टियों में रेणु को अपने नाना के घर जाने का मौका मिला। रेणु ने बीए द्वितीय वर्ष की परीक्षाएं दी थी। उसके नाना का गाँव नारनौल का कोई अति दूरस्थ गाँव था। नाना के घर पहुँचते ही नाना-नानी ने रेणु का खूब स्नेह से स्वागत किया।

गाँव के खेत-खलिहान, नहर, भैंस तथा विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे रेणु के मन में घर कर गए। दिल्ली में रहते हुए उसने कभी अपनी चित्रकला की पुस्तक में जो पहाड़-झोपड़ी-नदी वाली सीनरी देखी थी, उसे वह यहां सजीव होती दिखाई दे रही थी।

शाम को नाना के साथ खेतों में घूमकर जब वह घर लौटी तो देखा नानी घीया का साग बना रही थी, जो रेणु को कतई पसंद नहीं था। रेणु की मनोदशा भाँपकर नानी ने हंसते हुए कहा – “बेट्टी! एक बार साग खा के तो देखिए दिल्ली का मटर पनीर भूल जावैगी।” रेणु ने अविश्वास के साथ नानी को मुस्कान दी।

घीया का साग बनकर तैयार था। साग की गंध से रेणु के नथुने आकर्षित हो रहे थे। उससे रहा नहीं जा रहा था। वह झट से अपनी थाली लेकर पहुँच गई। नानी ने उसके उतावलेपन पर हँसकर उसको भोजन परोस दिया।

रेणु ने पहला कौर अनमने ढंग से खाया और बाकी का खाना स्वाद-स्वाद में कब खत्म हुआ पता ही नहीं चला। दिल्ली में रहकर उसने जो घीया कभी चखी तक न थी, आज उसने यहाँ दो कटोरी घीया का साग खाया। रेणु को एक नई बात भी पता चली कि उसने देखा कि नानी एक कटोरी साग भरकर बिमला नानी (पड़ोसन) के घर देने जा रही है। जब नानी वापस आई तो उनके हाथ में दूसरी कटोरी थी जिसमें तोरी का साग था। आकर नानी ने बताया कि बेट्टी यहाँ तो यो सब चालता रहवै सै, कदै वा साग दे जा तो कदे हम दे आवै।

रेणु इस प्रसंग से सर्वाधिक प्रभावित हुई। कितनी आत्मीयता, प्रेम और एकता है गाँव के लोगों में। छुट्टियां खत्म होने पर वह गाँव से दिल्ली लौट आई। बहुत कुछ सीखकर और बहुत कुछ पाकर। शाम को रेणु की माँ ने उसके लिए भिण्डी का साग बनाया। साग बनते ही रेणु ने एक कटोरी में साग डाला और गेट की तरफ़ चल दी।

माँ ने रोकते हुए पूछा कहाँ फेकने जा रही है? रेणु ने कहा – “फेंकने नहीं जा रही, गीता आंटी को देने जा रही हूँ, इससे उन्हें अच्छा लगेगा।”

माँ ने गुस्से में आँख दिखाते हुए कहा, “ये लड़की तो मेरी नाक कटवाएगी, इस कटोरी को रख दे, इस एक कटोरी साग के लिए पूरे पॉकेट में हँसी करवाएगी। उन्हें किसी दिन डिनर पर ही बुला लेंगे।”

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