‘Ek Stree Ke Kaarnaame’, a story by Suryabala

मैं औसत कद-काठी की लगभग खूबसूरत एक औरत हूँ, बल्कि महिला कहना ज्‍यादा ठीक होगा। सुशिक्षित, शिष्‍ट और बुद्धिमती, बल्कि बौद्धिक कहना ज्‍यादा ठीक होगा। शादी भी हो चुकी है और एक अदद, लगभग गौरवर्ण, सुदर्शन, स्‍वस्‍थ, पूरे पाँच फुट ग्‍यारह इंच की लंबाई वाले, मृदुभाषी मितभाषी पति की पत्‍नी हूँ।

बच्‍चे? हैं न। बेटी भी, बेटे भी। सौभाग्‍य से, समय से और सुविधा से पैदा हुए; भलीभांति पल-पुस कर बड़े हाने वाले। आज्ञाकारी और कुशाग्रबुद्धि के साथ-साथ समय से होमवर्क करने वाले। संपन्‍नता और सुविधाएँ इतनी तो हैं ही कि एक पति, दो कामवालियों और तीन बच्‍चों वाला यह कारवाँ, कदम-कदम बढ़ाते हुए लगभग हर कदम पर खुशी के गीत गाता चल सकता है। अर्थात पढ़ाई, लिखाई, ट्यूशन, टर्मिनल सब कुछ बहुत सुभीते और सलीके से। पूरी जिंदगी ही।

जितने पैसे माँगती हूँ, पति दे देते हैं। जहाँ जाना चाहती हूँ पति जाने देते हैं। कभी रोकते, टोकते नहीं। पूछते-पाछते भी नहीं। कभी उन्‍हें भी साथ चलने को कहती हूँ तो चले चलते हैं। कभी नहीं कहती तो नहीं चलते। खाना भी सदा सादा और स्‍वास्‍थ्‍यप्रद खाते हैं। कभी वे ही व्‍यंजन दुबारा-दुबारा बन गए तो मैं क्षमा माँगने के लहजे में सॉरी कह देती हूँ और वह बेहद धीमे से ‘इट्स ऑल राइट’ कहकर पारी समाप्ति की घोषणा कर देते हैं। वरना लोगों के घरों में जरा-से कम नमक या जरा-सी ज्‍यादा मिर्च की बात पर बवाल मचाने वाले पति मैंने खूब देखे है। पहले बवाल मचता है फिर जलजाला आता है और उसके बाद मान-मनोव्‍वल। घंट-दो-घंटे तो लग ही जाते हैं पूरा बारामसी कार्यक्रम निपटने में। लेकिन मेरे घर में कसम, आज तक ऐसा कभी हुआ ही नहीं। …तभी तो लोग कहते हैं कि मेरे पति आदमी नहीं, देवता हैं।

घर में तीन अखबार आते हैं। दो फोन और एक रंगीन टीवी है ही। वह ऑफिस के घंटों के ऊपर-नीचे सारे अखबार पढ़ते हैं। साथ-साथ टीवी भी चलता रहता है। जिस चैनल पर जो आता है, देखते हैं। जो चैनल लगा है, उसे लगा रहने देते हैं। जैसा कार्यक्रम आता है, आते रहने देते हैं। परेशान नहीं होते कभी। समय काटने की कोई समस्‍या ही नहीं उनके सामने। आपसे आप आराम से कटता जाता है… वरना कितने लोग तो ‘समय’ को लेकर ही तमाम उठापटक किए जाते हैं कि कैसे काटा जाए और कैसे बचाया जाए। मेरे पति को ऐसी कोई उधेड़बुन नहीं व्‍यापती। वह ऐसी हर समस्‍या के मूर्तिमान समाधान होते हैं। यही कारण है कि लोग उन्‍हें आदमी नहीं, देवता कहते हैं।

लेकिन अपनी क्‍या कहूँ? कहते भी शर्म आती है। उनके देवत्‍व को सँभाल पाने का शऊर ही नहीं है मुझे। वह जितने देवता होते जाते हैं, मैं उतनी-उतनी बेढंगी। हँसती हूँ तो खिलखिलाकर हँसती चली जाती हूँ और रोती हूँ तो बेतहाशा सावन-भादों की झड़ी लगा देती हूँ। और गुस्‍सा तो मेरी नाक पर रहता है। वह भी बेवजह। बात-बेबात भभक पड़ती हूँ। अक्‍सर बिना बात। अपने देवता समान पति पर भी। अच्‍छी तरह जानती हूँ, गलती सरासर मेरी ही होती है। फिर भी वह शांत भाव से (बिना यह जाने, सुने और समझे कि मैं किस बात पर भभकी हूँ) कभी ‘इट्स ओ.के.’ कह देते हैं, कभी ‘सो सॉरी…’। पड़ोसियों का कहना है कि आज तक कभी उनकी आवाज तक नहीं सुनाई दी। बात सच है। जब घर की घर में नहीं सुनाई दी तो बाहर तक कैसे जाएगी?

मान लीजिए छुट्टी के दिन वह बाहर निकलते दिखें तो मुझसे रहा नहीं जाता। बरबस पूछ बैठती हूँ- “कहीं जा रहे हैं क्‍या?”

“हाँ।”

“कहाँ?”

“बाहर।”

“बाहर, कहाँ?”

“एक किसी से मिलने…।”

“किससे?”

“तुम उन्‍हें नहीं जानतीं…।”

“अच्‍छा, कब तक लौटेंगे?”

“जल्‍दी भी आ सकता हूँ, देर भी लग सकती है।”

वही तो, मैने पहले ही बताया न, मृदुभाषी, मितभाषी, बताइए, इसमें जरा भी कोई बौखलाने वाली बात हो सकती है? नहीं न। तो भी मैं तकरार पर उतारूँ हो जाती हूँ। उनकी सारी सदाशयता ताक पर रखकर रार ठान लेती हूँ। एक बार तो मैं सीधे शिकायत पर उतर आई- “आप तो मुझसे कभी बात ही नहीं करते, सारा समय अखबार, टीवी, कंप्‍यूटर, फोन…”

उन्‍होंने अखबार, टीवी बंद कर समझदारी भरे स्‍वर में कहा, “ओ सॉरी… ठीक है, बताओ, क्‍या बात करूँ?”

अब यह अनुकूलता की चरम सीमा ही हुई न जो वह खुद मुझसे पूछ रहे थे कि बताओ क्‍या बातें करें मुझसे।

लेकिन ऐन वक्‍त पर मेरी अक्‍ल पर पत्‍थर जो पड़ जा‍ते हैं। हड़बड़ा कर सोचने लगी कि इनको क्‍या विषय दूँ, मुझसे बात करने के लिए। घबराहट यह भी है कि वह इंतजार कर रहे हैं और मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा।

हकलाकर कहती हूँ, “अरे, और कुछ नहीं तो यही कि आज पूरा दिन ऑफिस में कैसा बीता। दिन भर कितनी बड़ी-बड़ी चीजें घटी होगी। वही कुछ।”

“ओ यस..”, उन्‍होंने याद करने की कोशिश की और स्‍थिर भाव से बताने लगे। मैं मन लगाकर सुनने लगी। जब वह सुबह ऑफिस पहुँचे तो उनका चपरासी प्‍यारेलाल हमेशा की तरह दूसरे चपरासी कामता के पास खैनी माँगने गया हुआ था। ऑपरेटर भी देर से आई। पैकिंग में साढ़े दस से ‘गो-स्‍लो’ शुरू हो गया। इसलिए कायदे से माल की जो लोडिंग साढ़े तीन तक ही जानी चाहिए थी, वह साढ़े पाँच बल्‍कि पाँच पैंतालीस तक चली। ट्रकों को ज्‍यादा इंतजार करना पड़ा। पैकिंग डिपार्टमेंट और लोडिंग वालों के बीच इस सबको लेकर तनातनी रही। कैशियर बरुआ ने छुट्टी बढ़ा ली। बहुत से बिलों का भुगातान रुक गया। केमिकल लैब का असिस्‍टेंट मखीजा आज फिर वैक्‍सीन की कल्‍चर चुराते पकड़ा गया। बीच में डेढ़ घंटे बिजली गायब रही। …रहमतगंज वाले टैंकर का ब्रेक डाउन हो गया। साढ़े तीन बजे से बजट की मीटिंग थी। और…। अचानक मेरी तंद्रा टूटी। पति पूछ रहे थे… और बातें करूँ? कि बस?

उफ! मैं तो भूल ही गई थी कि मैंने उन्‍हें बातें करने के लिए कहा था। और वह इतनी देर से मेरा कहा मानकर दिन भर चले कार्यकलापों का विवरण दे रहे थे।

जबकि मैं शायद बीच में ढपक जाने या कुछ और सोचने लग जाने की वजह से कुल एक-दो वाक्‍यों से ज्‍यादा कुछ ठीक से सुन-समझ नहीं पाई थी। अब यह तो मेरी ही बेअदबी की हद हुई न कि खुद ही पूछे सवालों के जवाब सुनने की जगह उबासियाँ लेती कुछ और सोचती-झपकती रही। लेकिन वह अब भी पूछ रहे थे कि क्‍या कुछ और बातें की जाएँ…।

हार कर एक रास्‍ता निकाला, “जाने दीजिए आप थक गए होंगे। मैं चाय बनाती हूँ। बनाऊँ?”

वह मेरे मना कर देने पर निश्चिन्त भाव से टीवी देखने लगे थे। मेरा कहा सुन नहीं पाए। मैंने रुककर थोड़ा इंतजार किया। फिर पूछा, “चाय बनाऊँ? पीएँगे?” तब उन्‍होंने शांत भाव से कहा… “हाँ, पी लूँगा।”

मैं अच्‍छी-खासी समझदार पत्‍नी की तरह किचेन में गई। पतीला गैस पर चढ़ाया। इतने ही में बस, पता नहीं क्‍या हुआ कि मेरे अंदर झल्‍लाहट का भभका-सा आ गया। एकदम पागलपन के दौरे की तरह। जैसे दिल-दिमाग की सारी समझदारियाँ धड़ाधड़ ध्‍वस्‍त-पस्‍त होने लगें। जैसे कोई तोड़क, विध्‍वंसक बुलडोजर अचानक कतार से खड़ी सलीकेवार इमारतों को तोड़ने, ध्‍वंस करने पर उतारू हो जाए। इस तोड़क दस्‍ते का आक्रामक संचालन भी मैं ही मचा रही हूँ। शोर-शराबे के बीच। जो कुछ थोड़ा बहुत सुन-समझ पड़ रहा है उसका आशय है…।

“पी लूँगा… क्‍या मतलब! कोई अहसान करोगे क्‍या मुझ पर? …कायदे से यह नहीं कह सकते थे कि हाँ-हाँ, बनाओ न। …मेरा भी दिल कर रहा है चाय पीने का।”

“या फिर यही कह देते कि… ऐसा करो, जरा अदरक, काली मिर्च भी डालकर तड़कदार बनाओ… ठीक?”

इस किस्‍म की सारी इबारतें नाजायज, सारे निर्माण अवैध… सब गिरे, ढहे, ध्‍वस्‍त-पस्‍त। मलबे पर सिर्फ एक मनहूस-सा शब्‍द टँगा है – ‘पी लूँगा…।’

लेकिन यह सब मेरे अंदर वाले लोक की माया है। बाहर तो गैस पर चाय का पानी खौल रहा है और ट्रे में बदस्‍तूर शुगर पॉट और मिल्‍क पॉट के साथ चाय की प्‍यालियाँ सजी हैं।

अचानक फिर से मुझे जाने क्‍या होने लगता है। चाय का पानी मेरे अंदर खौलने लगता है। बर्नर की लपटें तेज और लपलपाने लगती हैं। यहाँ-वहाँ, सब कुछ दहकने, तपने लगता है। दिल-दिमाग बेकाबू, एक वहशी उत्‍तेजना की चपेट में। और… अचानक मैं खुद को रोकते, न रोकते, चाय की पत्‍ती और कुटी अदरक के संग पूरे चम्‍मच भर काली मिर्च की बुकनी खौलते पानी में डाल देती हूँ!

और, अब मैं साँस रोक, धड़कनें समेटकर उन्‍हें चाय का पहला घूँट लेते देख रही हूँ। अब बोले… बस अब, उफ, मैं ज्‍यादा इंतजार नहीं कर पाती।

“क्‍यों? क्‍या हुआ…?” मैं लगभग बेसब्र होकर पूछ बैठती हूँ, “काली मिर्च खूब ज्‍यादा पड़ गई है न! …बोलो, बोलो, बोलो न!”

“हाँ…।”

“तो?” मैं धड़कनें रोककर पूछती हूँ।

“इट्स आल राइट।”

‘क्‍याऽऽऽऽ…?’ मुझे अपने कानों पर विश्‍वास नहीं होता। मेरा मौन वहशियाना हो उठता है, “बात.. बात कैसे नहीं? साफ-साफ क्‍यों नहीं कहते कि काली मिर्च झुकी हुई है चाय में। चाय चरपरी नहीं, बल्‍कि मिर्च का शोरबा है। …और… यह शोरबा मैंने बनाया है, जान-बूझकर… जिससे इस घर में बिछी बर्फ की सिल्‍लियाँ चकनाचूर हों, बर्फ पिघले तो पानी बहे, पानी बहे और हवा हिलकोरे, तूफानी ही सही। हवा, पानी, बर्फ और तूफान, बादल और बिजली सब कुछ एक साथ… बहुत हो गई देवताई। थोड़ा ही सही, हैवानियत पर भी उतरा जाए। यह अष्‍टधातु की साँचों में ढली मूरत चिटके और हाड़-मांस के एक साबुत आदमी से साबका तो पड़े…।”

लेकिन मैं इंतजार करती रही। कोई तूफान नहीं आया। कोई बिजली नहीं कड़की, न बादल, बारिश ही।

ग्लानि से भरी मैं चुपचाप उठी। मैंने अपने आपको कहते हुए सुना, “सॉरी, मुझसे काली मिर्च की बुकनी ज्‍यादा पड़ गई दूसरी बनाकर लाती हूँ”, …और ट्रे उठाकर चल दी।

आपको अपनी आँखों पर विश्‍वास नहीं आता न! मैं खुद हकबकी, हैरान-सी देखती हूँ, ‘मेरे देवता समान’ पति और मैं शांति से साथ-साथ चाय पी रहे हैं।

“पी लूँगा…

क्‍या मतलब!

कोई अहसान

करोगे क्‍या मुझ पर? …कायदे

से यह नहीं कह

सकते थे कि

हाँ-हाँ, बनाओ

न!…”

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सूर्यबाला
सुपरिचित कहानीकार, लेखिका व उपन्यासकार।

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