नदी के पाँव
फिसलते जब भी
डूबते गांव

सो रही धूप
किसी निर्जन वन
बदल रूप

बंटे बर्तन
भाइयों के बीच में
रोया आंगन

शहर जला
माचिसों पर दोष
इन्सान चला

किताबें शांत
बैठी हैं अकेले में
शब्द अशांत

पेड़ थे मौन
बसाने थे मकान
हुए कुर्बान

रोये पहाड़
नदियों की दुर्दशा
ये खिलवाड़

आंधियां आईं
पेड़ मरे हजारों
मौत अकाल

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विजय ‘गुंजन’
डॉ विजय श्रीवास्तव लवली प्रोफेशनल यूनिवसिर्टी में अर्थशास्त्र विभाग में सहायक आचार्य है। आप गांधीवादी विचारों में शोध की गहन रूचि रखते हैं और कई मंचों पर गांधीवादी विचारों पर अपने मत रख चुके हैं। आपकी रूचि असमानता और विभेदीकरण पर कार्य करने की है। हिन्दी लेखन में विशेष रूचि रखते हैं और गीत, हाइकु और लघु कथा इत्यादि विधाओं में लिखते रहते हैं। विजय का 'तारों की परछाइयां' काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाशित होने वाला है |विजय फगवाड़ा पंजाब में रहते हैं और उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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