नदी के पाँव
फिसलते जब भी
डूबते गांव
सो रही धूप
किसी निर्जन वन
बदल रूप
बंटे बर्तन
भाइयों के बीच में
रोया आंगन
शहर जला
माचिसों पर दोष
इन्सान चला
किताबें शांत
बैठी हैं अकेले में
शब्द अशांत
पेड़ थे मौन
बसाने थे मकान
हुए कुर्बान
रोये पहाड़
नदियों की दुर्दशा
ये खिलवाड़
आंधियां आईं
पेड़ मरे हजारों
मौत अकाल