सूचित हो, सभी सूचकाँक उपर हैं,
हक़ीक़त औंधे मुँह गिरी जा रही है

बाज़ीगरी की ग़ज़ब बारीकियाँ हैं,
आँकड़ों की आँखें मूँदी जा रही हैं

फ़सलों पर क़ीमतों के फंदे हैं,
किसानों की गर्दनें नापी जा रही हैं

उफनते उन्मादों का उत्सव है,
ज़िन्दगी ख़ौफ़ से मरी जा रही है

रोजी के गीत और रोटियों के तराने हैं,
यूँ जुमलों की जुगाली करी जा रही है

महकती मोहब्बतों का मौसम है,
नफरतें नफ़ासत से भरी जा रही हैं

जो आज़ादी की ख़ातिर शहीद हैं,
उनकी फ़ितरतें खंगाली जा रही हैं

हक़ीक़त औंधे मुँह गिरी जा रही है..

〽️

©️ मनोज मीक

Previous articleसाक़ी
Next articleशब्द बीज
मनोज मीक
〽️ मनोज मीक भोपाल के मशहूर शहरी विकास शोधकर्ता, लेखक, कवि व कॉलमनिस्ट हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here