इतनी बड़ी दुनिया में कहीं जा नहीं रहा हूँ
भीतर और बाहर जगहें छोड़ता
शून्य से हटता हूँ।
किसी की ओर बढ़ता हुआ मैं हो सकता था
बहुत बड़ा तूफ़ान लिए भीतर
दूर तक आता-जाता हो सकता था
रहने और न रहने के बीच
ठिठका यह डर न होता
हो सकता था खो जाता ऐसा मेरा अर्थ होता।
अपने घाव पर उड़ती मक्खियों की सी भिन-भिन नहीं
जो सहा और जाना उसके भीतर से
आती मेरी आवाज़
कुछ ऐसे भी होते मेरे शब्द
मैं जब उनके अर्थ की कौंध में
एक क्षण-सा पूरा गुज़र जाता अकस्मात्।
छूता किसी को
तो हाथों में अनिश्चय न होता
न होता तनाव
अपने दुःखों से दूसरों को लादे बिना
धीरे-धीरे पिघलता हुआ
उसकी आँच में धीरे-धीरे बदलता
होती विरक्ति ऐसी
कि देखता जहाँ कोई अर्थ नहीं
वहाँ भी है अर्थ
कुछ भी ऐसा नहीं कि विस्मय न हो
कुछ भी ऐसा नहीं कि पहले नहीं था।
बारिश में भीगता हुआ लौटता
खिड़कियाँ खोलता
दूर-दूर पेड़ों के हरे अंधकार में
भरे-पूरे अलाव के ऊपर
बहुत सारे होते मेरे हाथ इस तरह
कि नींद कई घरों में सुलाती एक साथ
बहुत बड़े सपने के सपने सारी रात
सुबह एक ऐसी दुनिया पर धूप
कि कोई उत्सव है हर तरफ़।
नवीन सागर की कविता 'बचते-बचते थक गया'